रावत सारस्वत : एक परिचय

- सुधीर सारस्वत

इतिहासविदों एवं पुरातत्वशास्त्रियों के अनुसार सभी प्राचीन महान सभ्यताएं महान नदियों के किनारे ही विकसित हुईं। उन्हीं नदी घाटियों के किनारे बसे कबीलों एवं सभ्यताओं के नाम भी उन्हीं नदियों के नामों पर पड़े। सिन्धु घाटी सभ्यता, सरस्वती घाटी सभ्यता। कालांतर में उनके किनारे बसने वाले लोगों के नाम, गोत्र इत्यादि भी उसी के अनुसार प्रचलित हुए। इसी प्रकार प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे बसने वाले भी सारस्वत कहलाये। स्व. रावत सारस्वत के पूर्वज भी प्राचीन काल में कश्मीर (प्राचीन सरस्वती नदी के उदगम् स्थल) से विस्थापित होकर पहले पंजाब, हरियाणा तथा बाद में राजस्थान के शेखावाटी भू भाग में आकर बसे। उन्हीं पूर्वजों में से एक परिवार बिसाऊ (झुंझुनूं) में बसा। इसी परिवार मंे एक पूर्वज केदारनाथ सारस्वत अपने रिश्ते के दूसरे परिवार जो चूरू में बसा था के गोद आए। श्री केदारनाथजी के सुपुत्र श्री महादेवप्रसाद हुए जो बीकानेर रियासत में थानेदार रहे। श्री महादेवप्रसाद के यहां पांच पुत्र हुए।

जन्म :- श्री रावत सारस्वत का जन्म २२ जनवरी, १९२१ को चूरू में एक साधारण ब्राघ्ण परिवार में पिता श्री हनुमानप्रसाद सारस्वत तथा माता बनारसी देवी के यहां हुआ। अपने ८ बहन भाईयों (४ बहन तथा ४ भाई) में श्री रावत सारस्वत सबसे बड़े थे। वर्तमान में इस पीढ़ी में कोई भी भाई या बहिन विद्यमान नहीं है।

शिक्षा :- प्रारम्भिक शिक्षा चूरू में ही हुई। पढ़ाई में होशियार होने के कारण दादा महादेवप्रसाद के वे विशेष प्रिय रहे। परिवार में ताऊ श्री बालचन्द जो एम.ए. बी.टी. तक शिक्षित थे तथा चूरू लोहिया कॉलेज में कार्यरत् रहे, उनके अलावा चाचा श्री मुरलीधर सारस्वत एम.ए. साहित्यरत्न थे तथा ऋषिकुल चूरू में कार्यरत रहे। पिता तथा बाकी दो चाचा कोई विशेष शिक्षा अर्जित नहीं कर पाये। श्री रावत सारस्वत ने आठवीं तक बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त कर छात्रवृति प्राप्त करने का जो सिलसिला शुरु किया उसे बी.ए. तक कायम रखा।

१. दसवी सन् १९३८ बीकानेर बोर्ड (पूरे स्टेट में फर्स्ट क्लास)
२. बी.ए. सन् १९४१ (आगरा विश्वविद्यालय - प्रथम श्रेणी)
३. एम.ए. सन् १९४७ (नागपुर विश्वविद्यालय - प्रथम श्रेणी)
४. एल.एल.बी. १९४९ (राजस्थान विश्वविद्यालय - प्रथम श्रेणी)

विवाह :- सन् १९४१ में बी.ए. तक शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त, परिवार वालों के आग्रह पर आपका विवाह सिंघाना (खेतड़ी तहसील) के सागरमल जी वैद्य की पुत्री कलावती देवी के साथ १९४२ में सम्पन्न हुआ।

१९४४ में प्रथम पुत्र सुधीर सारस्वत
१९४७ में पुत्री मंजूश्री
१९४९ में पुत्री नीलिमा
१९५१ में पुत्री मधु
१९५३ में पुत्र शेखर सारस्वत

परिवार में २ पुत्र तथा ३ पुत्रियां (ऊपर वर्णित) हुई। बड़ा पुत्र सिविल इन्जीनियर (सन् २००० में सेवानिवृत) तथा छोटा पुत्र (एम.एस.सी. भूगर्भ विज्ञान - बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) वर्तमान में सेवानिवृत तथा तीनों बहिनें विवाहित जीवन व्यतीत कर रही हैं।

कार्य एवं पद :-
१९४१ से १९४४ तक अनूप संस्कृत लाईब्रेरी, बीकानेर में पुराने संस्कृत, डिंगल, पिंगल एवं प्राकृत के ग्रंन्थों का कैटेलॉग बनाने मं सहायक लाईब्रेरियन के रूप में।
१९४५ से १९५२ - पत्रकार एवं प्रेस संचालक के रूप में जयपुर में ।
(साधना प्रेस तथा राजपूत प्रेस)
१९५२ से १९८२ - इण्डियन रेडोक्रास सोसाईटी के संगठन सचिव के रूप में।
१९५५ से १९८८ - विभिन्न संस्थाओं में सचिव, मैनेजर तथा सभापति।

लिखित-प्रकाशित/अप्रकाशित पुस्तकों की सूची -

१. मौलिक
(प्रकाशित) -
(१) बरबत रै परवाण (कविताएं) सन् १९८९
(२) मीणा इतिहास
(३) दुरसा आढा सन् १९८३
(४) पृथ्वीराज राठौड़ (भारतीय इतिहास के निर्माता) सन् १९८४
(५) आईडेनटिटी ऑफ रावल्स सन् १९८२

(अप्रकाशित)
(१) अणगाया गीत
(२) राजस्थानी भाषा का संक्षिप्त इतिहास
(३) आज का राजस्थानी साहित्य
(४) संक्षिप्त राजस्थानी शब्द कोश।

२. अनुवादित
(प्रकाशित) -
(१) बंसरी (रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटक का राजस्थानी में अनुवाद)
(२) बादळी (चन्द्रसिंह के राजस्थानी काव्य का हिन्दी अनुवाद)
(३) जफरनामो - (गुरु गोविन्द सिंह के फारसी काव्य का अनुवाद १९७५)

(अप्रकाशित)
(१) ऋग्वेद की ऋचाएं
(२) पंचासिका (पुराना संस्कृत ग्रन्थ) विल्हण द्वारा रचित
(३) गाथा सतसई (प्राचीन प्राकृत ग्रंथ)

३. संपादन
(प्रकाशित)
(१) चंदायन, १९६०
(२) राजस्थान के कवि भाग २, १९६१
(३) आज रा कवि (वेदव्यास के साथ)
(४) आज रा कहाणीकार (रामेश्वरदयाल श्री माली के साथ, १९७६)
(५) दळपत विलास प्राचीन गद्य ग्रन्थ १९६०
(६) महादेव पार्वती री वेलि प्राचीन पद्य, १९६०
(७) राजस्थान रा लोकगीत १९६०
(८) राजस्थान के साहित्यकार परिचय कोष (दो भाग)
(९) संक्षिप्त राजस्थानी शब्द कोश
(१०) प्रबन्ध पारिजात १९८२ (डॉ. हीरालाल माहेश्वरी के साथ) साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित
(११) आज री कहाणियां (श्री प्रेमजी 'प्रेम` के साथ)
(१२) जनकवि उस्ताद (रामेश्वरदयाल श्रीमाली के साथ, १९७२)
(१३) चैत रा चितराम
(१४) डिंगलगीत (प्राचीन पद्य)
(१५) प्राचीन राजस्थानी कवि।

४. अंग्रेजी
(प्रकाशित)
(१) फीडम मूवमेंट ऑफ राजस्थानी लिटघ्ेचर
(२) कल्चर डिक्सनरी ऑफ राजस्थान
(३) सोसियोइकोनोमिक लाईफ इन मेडिवल राजस्थान एज डेपिक्टेड इन राजस्थान प्रोस कोनीकल्स
(४) कान्हड़ दे प्रबन्ध- ए कल्चरल स्टडी

५. कविताएं
(प्रकाशित)
(१) सुरसत नै अरज
(२) ओ कुण लुक छिप आवै
(३) हेलो
(४) पड़ुतर
(५) मरण रो वरण आज कुण करसी
(६) ओळ्यूंड़ी
(७) परमातम री किरण

६. डिंगलगीत
(प्रकाशित)
(१) महामाया
(२) सुमनेश जोशी रो मरसियो
(३) अगरचन्द नाहटा रो मरसियो।

७. नई कविताएं
(प्रकाशित)
(१) घूंघट
(२) जोधा जाग

८. आत्मबोध :- पीड़।
इसके अलावा बहुत से फुटकर अप्रकाशित लेख इत्यादि भी हैं।

कार्यभार-दायित्व निर्वहन-
संपादक :- मरुवाणी - राजस्थानी भाषा की प्रथम अग्रणी पत्रिका (१९५३)
सचिव :- जयुपर। राजस्थान भाषा प्रचार सभा (राजस्थानी भाषा की पारखी विशारद तथा प्रथमा परीक्षाओं का संचालन)
सचिव :- राजस्थान लेखक सहकार समिति, जयपुर।
जनरल मैनेजर तथा सचिव :- राजस्थान स्टेट कॉआपरेटिव प्रिंटर्स लिमिटेड, जयपुर।
सभापति :- राजस्थान भाषा साहित्य संगम अकादमी, उदयपुर।
सदस्य (गवर्निंग बोर्ड) :- राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर।
सदस्य राजस्थानी विषय कमेटी :- जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर।
सदस्य (सलाहकार/संपादक मंडल) :- वरदा, मरुश्री, बागड़ संदेश, विश्वम्भरा।

विभिन्न सेमीनारों तथा सिंपोजियमों में उनके द्वारा पढ़े गये पेपर :-
१. ''ट्रांस्लेटर्स वर्कसोप`` ऑर्गेनाईज्ड एट भोपाल बाइ साहित्या एकेडमी, न्यू देलही।
२. ''ड्रामा लिस्ट वर्कसोप`` ऑर्गेनाईज्ड एट वारानसी बाइ साहित्या एकेडमी, न्यू देलही।
३. ऑल राजस्थान राइइटर्स कॉन्फ्रेन्स एट बीकानेर : ऑर्गेनाईज्ड बाइ राजस्थान साहित्य एकेडमी, उदयपुर।
४. राजस्थान रिसर्च सेमीनार एट उदयपुर।
५. कॉण्ट्रिब्‍यूटेड आर्टिकल्स इन ''कोटेम्पोरेरी इन्डियन लिट्रेचर`` ऑफ केरला साहित्य एकेडमी, राजस्थान गजतीर।

विभिन्न पत्रिकाएं एवं अखबार जिनमें उनके लेख छपे :-
१. भारतीय साहित्य - नई दिल्ली अकादमी द्वारा प्रकाशित।
२. कान्टैपोरेरी भारतीय साहित्य - नई दिल्ली अकादमी द्वारा प्रकाशित।
३. मधुमती - उदयपुर
४. जागती जोत - बीकानेर
५. वरदा - बिसाऊ
६. राजस्थानी भारती - बीकानेर
७. सरस्वती - इलाहबाद
८. राष्‍ट्रजा - कलकघा
९. राष्‍ट्रदूत - जयपुर
१०. राजस्थान पत्रिका - जयपुर
११. विश्वम्भरा - बीकानेर
१२. शोध पत्रिका - उदयपुर
१३. जनमंगल - उदयपुर
१४. मरुभारती - पिलानी
१५. बिणजारो - पिलानी।
इसके अलावा बहुत-सी पत्रिकाओं के विशेषांकों एवं अन्य जनरलों में भी अनेक लेख प्रकाशित हुए।

पुरस्कार -
(१) राजस्थानी भाषा और साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए ''विशिष्ट साहित्यकार`` पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सन् १९७७ में।
(२) ''दीपचन्द साहित्य पुरस्कार`` राजस्थानी भाषा के योगदान के लिए सन् १९८८
(३) उपराष्टघ्पति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा दिल्ली में ''राजस्थान रत्नाकर`` पुरस्कार १९८९ में।
(४) 'बखत रै परवाण` पुस्तक पर मरणोपरान्त राजस्थान साहित्य संगम अकादमी, बीकानेर द्वारा पुरस्कार सन् १९९०

स्‍वर्गवास-
श्री रावत सारस्वत का स्वर्गवास १६ दिसम्बर, १९८९ को हुआ।

कामां रै ओळै-दोळै रावत सारस्वत

- दुलाराम सहारण

गांव, नगर अर महानगरां मांय पूत तो घणां ही जामै। पण सपूत कम ही हुवै। चूरू री धरती घणी रत्ना री खान है अर सदीव सूं रत्न निपजती रैयी है। रावत सारस्वत रो नांव ही उणां रत्नां भेळो है। जका आपरै अणथक कामां रै पाण सपूत बण्यां अर आखै राजस्थान मांय आपरै नांव रै साथै-साथै चूरू नगर रो नांव ही सिरै चढ़ायो।
रावत सारस्वत रो जलम 22 जनवरी 1921 ई. नैं आपणै नगर मांय पं. हनुमान प्रसाद सारस्वत रै आंगणै हुयो। इणां री स्कूल री पढ़ाई बागला स्कूल मांय अर ग्रेजुएशन री पढ़ाई डूंगर कॉलेज बीकानेर मांय हुयी। ग्रेजुएशन पछै एम.ए., एल.एल. बी री परीक्षावां ही रावत पास करी।
बीकानेर पढ़ाई रै बगत राजस्थानी रा थम्म नरोत्तमदासजी स्वामी रा रावतजी खास चेला हा। बै उणां रा गुरुजी हा। नरोत्तम जी रो उणां ऊपर इस्यो असर पड़्यो कै बै उणां रै रंग मांय ही रंगीजग्या। राजस्थानी भासा री पीड़ बीं टैम उठती-सी ही। स्वामीजी उण पीड़ रा पळोटण हार हा अर भासा आंदोलन रा एक जबरा भाग हा। स्वामीजी री बात नै रावतजी ही समझी अर आपरो सगळो ध्यान राजस्थानी भासा कानी लगा दियो। अठै आ बात कैवणी जाबक सही रैयसी कै उणां रो ओ राजस्थानी हेत रो निर्णय ही महताऊ रैयो जका उणा नैं एक राजस्थानी इतियास मांय देव पुरख बणा दिया अर बै अमर होग्या।
पढ़ाई पछै बीकानेर मांय रावत ही रैया अर रैवास री बगत रावतजी बठै री अनूप संस्कृत लाइब्रेरी मांय लाइब्रेरियन बणग्या। लाइब्रेरी अर सादुल राजस्थानी इन्स्टीट्यूट, बीकानेर रै जबरै संजोग सूं रावत जी एक खास विधा मांय प्रवीण होग्या अर बा विधा ही पुराणा हस्तलिखित ग्रंथा अर खासकर डिंगल ग्रंथा मांय महारथी होवण री। 1948 रै अड़ैगड़ै रावत जी बीकानेर सूं जैपुर पूग्या अर जैपुर उणां रो सदीव रो रैवास बणग्यो। जैपुर मांय साहित्य सेवा रै साथै समाज सेवा रै कारण रावतजी आपरौ एक निरवाळी पिछांण बणाली।
एकर साहित्‍यकार भंवरसिंह सामौर सा'ब बतावै हा कै बै जद राजस्थान विश्वविद्यालय मांय पढ़ता तो रावतजी जैपुर मांय शिखर पर हा। रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत अर कुम्भाराम जी आर्य सागै उणांरी जबरी जोड़ी ही। राजस्थानी रो हेत रावतजी मांय कित्तो हो इण री परतख अंदाजो सामौर सा'ब री ही एक बात सूं लाग्यो कै रावतजी विश्वविद्यालय रै हॉस्टलां मांय चाल'र खुद आवज्यावंता अर राजस्थानी रै पख री बातां करता। नुंवा लिखारा नै राजस्थानी सूं जोड़ता अर एक टीम त्यार करण री सोचता। भंवरसिंह सामौर सा'ब अर बैजनाथ पंवार सा'ब नै जे आपां रावतजी री ही देन मांना तो कीं अणओपती बात कोनी।
जैपुर मांय रावतजी रेडक्रास सोसाइटी रै मारफत घणा सक्रिय हा। अर ओ कारण रैया कै राजस्थानी रै प्रचार-प्रसार खातर रावतजी नै कदै ही मंच रो तोड़ो कोनी आयो।
raajasthaanii भासा खातर रावत जी रै योगदान रो जे जिकर करां तो उणां रा दो काम ही सगळां साम्ही भारी पड़ै। अै दो काम हा - राजस्थानी भासा री परीक्षावा सरू करणी अर दूजी मरुवाणी पत्रिका सरू करणी।
रावतजी मरूवाणी सरू करी तो राजस्थानी रै एक नये जुग रो सिरजण हुयो। मरुवाणी रै मारफत राजस्थान रै कुण-कुणै मांय लेखक त्यार होग्या। आज जे राजस्थानी रै ठावा लेखकां री पैली रचनावां रो हिसाब लगावां तो घणकरां क लेखका री रचना मरूवाणी रै नांव मंडै। आज जे मरूवाणी रा अंका रो निरखण करां तो देख'र अचूंभो हुवै कै इत्ती जोरदार पत्रिका काढ़ण खातर रावतजी कित्ती साधना करी होसी। आज शोध छात्रां मांय मरूवाणी एक ठावी चीज है। बै आपरो घणकरो सो काम मरूवाणी रै पेटै ही सळटाय लेवै।
मरूवाणी रै साथै-साथै ही रावत जी राजस्थानी भासा प्रचार सभा री थापणा ही करी जकी राजस्थानी भासा मांय चार परीक्षावां सरू करी । अै परीक्षावां तीस साल ताणी होयी अर आखै राजस्थानी मांय होयी। एक अंदाजो लगावां तो हिवड़ो गुमेज सूं भरै कै बा परीक्षावां रै पाण कित्ता राजस्थानी लोगां आपरी मायड़ भासा रो लिखण पढण रो ग्यान कर्यो होसी। चूरू मांय अै परीक्षावां बैजनाथजी पंवार करवांवता जकां रो एक न्यारी सोनल रपट है।
रावतजी रो राजस्थानी भासा मांय जोगदान रो लेखो तो राजस्थानी भासा रा सगळा इतिहास ग्रंथ देवै। पण उणां रै लेखन कानी निजर पसारां तो ओ गरब हुवै कै बै कवि हा , कै अनुवादक। बै नाटककार हा कै निबंधकार। बै संपादक हा कै समीक्षक। बै राजस्थानी रा इंन्साइक्लापिडिया हा कै इतिहासकार।
रावतजी सगळी विधावां मांय आपरो लेखन कर्यो। कवि री भावना नै बै पळोटी तो गद्यकार री भावना नै बा विस्तार दियो। चावा साहित्‍यकार हरिरामजी मीणा नै तो अंचम्भो होयो जद बै रावत जी रो लिखेड़ो 'मीणा जाति रो इतिहास' देख्‍यो। बाळ री खाल काढ़ण रा ग्यानी पुरख हा रावतजी।
म्हैं अठे रावतजी सगळी किताबां रो जिकर कोनी करू। बस कीं खास पोथ्यां रा नाम गिणाद्यूं। रावत जी दुरसा आढ़ा, पृथ्वीराज राठौड़, बंसरी, जनकवि उस्ताद, महादेव पार्वती री बेलि, दळपत विलास, डिंगळ गीत अर जफरनामो। अै पोथ्यां रावतजी री विद्वता री साख भरै। रावतजी राजस्थानी रै साथै-साथै अंग्रेजी अर हिन्दी रा ही आधिकारिक विद्वान हा। उणां री तीन-चार पोथ्यां अंग्रेजी मांय ही है। जकी मांय सूं '' पोएटस टू वर्डस एंड लिटरेचर'' घणी चावी हुयी।
रावतजी नै उणां री साहित्य सेवा सारू घणा सनमान अर इनाम मिल्या। उणां री एक लाम्बी लिस्ट है। रावतजी भलां ही राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी , बीकानेर , केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली रा मानीजता सदस्य अर परामर्श मण्डल रा चावा थम्ब रैया पण चूरू सदा ही ''घर को जोगी जोगणो .....'' मान्यो।
राजस्थानी री घणी सेवा करता-करता रावतजी राजस्थानी रा एक सबळा सिरजणधरमी बणग्या। उणां री आपरी न्यारी ओळखांण होग्यी। रावतजी रो जबरो नाव हुग्यो।
इस्या नांव रा धणी रावत जी रो सुरगवास 16 दिसम्बर, 1989 ई. हुयो।
लारलै कीं बगत सू बैजनाथजी, सामौरजी अर दुर्गेशजी सूं रावत जी पेटै बंतळ हुयी तो एक बात साफ हुयी कै आज दुनिया मतलब री है। जीवंतै मिनख सूं मतलब हुवै तो उण री घणी गुलामी करै पण उण रै जायां पछै कुण गुलामी करै ? आज तो जमारो इस्यो है कै कोयी घणो खास हुवै अर बीं सूं घणा ही फायदा लियेड़ा हुवै। अर बो जे मरज्या अर बीं रै परिवार मांय लारनै कीं मतलब निगै नीं आवै तो आज रो मिनख बिण रै दाग मांय ही जावणो जरूरी कोनी समझै। सगळा मतलब रा मीत हुवै।

आखर मांय रावत जी सारस्वत नै उणां रै काम पेटै याद करता थकां म्हैं उणां नैं घणो निवण करू कै बै राजस्थानी भासा खातर जबरो काम कर्यो अर राजस्थानी लेखका री एक फौज खड़ी करी।

रावत सारस्वत : मोटामोट ओळखांण

- भंवरसिंह सामौर

चूरू री धोरां-धरती अलेखूं नखतर्यां री जलम भौम है। अठै रा लाडेसर आपरै तेज अर हेज सूं हरमेस आखी भौम रा मनभावणा-मनचावणा रैया है। राजस्थान ई नीं, राजस्थान सूं बारै-ई अठै रै मानखै आपरी हाजरी मंडायी है। देस-दिसावर रा जूझारू ब्यौपारी अर फौजां रा बांकीला रंगरूटां तो इण धरती नै खासी बडम दीरायी-ई दीरायी है, पण अठै रा कलमधणी लिखारा ई आपरी न्यारी-निकेवळी पिछांण करायी है।
भरत व्यास, मेघराज मुकुल, कन्हैयालाल सेठिया, रावत सारस्वत आद इण सईकै रै खास लिखारां रा नांव है, जकां साहित्य-आभै मांय नुंवै अंदाज सूं थरपीज्या। जूनी बातां करां तो घणां ई लिखारा रा नांव चेतै आय सकै, जकां रै पांण इण छेतर रो नांव गरबीजै, पण आपां नै बात रावत सारस्वत सूं सरू करणी है, इण कारणै आपां चेतै करां 1921ई. री 22 जनवरी नै। इणी दिन चूरू रै कुर्विलाव सारस्वतां रै घरां नखतरी रावत सारस्वत रो जलम हुयो। पिता रो नांव हनुमानप्रसाद सारस्वत अर मां रो नांव श्रीमती बनारसी देवी।

रावत सारस्वत री सरूवाती पढाई चूरू मांय ई हुयी। वै पढण मांय घणा हुंसियार हा। आठवीं ताणी बोर्ड मांय पैली ठौड़ लेय`र छात्रवृत्ति रा हकदार बण्या। सन् 1939 मांय बीकानेर बोर्ड सूं हाईस्कूल परीक्षा पास करी अर इण परीक्षा मांय बीकानेर स्टेट मांय प्रथम स्थान हासळ कर्यो। सन् 1941 मांय आगरा विश्वविद्यालय, आगरा सूं प्रथम श्रेणी सूं बीए री डिग्री लीन्ही। सन् 1947 मांय नागपुर विश्वविद्यालय सूं प्रथम श्रेणी मांय एमए अर सन् 1949 मांय राजस्थान विश्वविद्यालय सूं प्रथम श्रेणी मांय एलएल.बी. री डिग्री लीन्ही।

रावत सारस्वत सन् 1941 सूं 1944 ताणी अनूप संस्कृत लाईब्रेरी, बीकानेर मांय पुराणा संस्कृत, डिंगळ-पिंगळ अर प्राकृत रा ग्रंथां माथै सहायक लाइब्रेरियन रै हैसियत सूं काम कर्यो। आं वांरी साधना स्थळी बणी अर अठै जको कीं सीख्यो वो रावतजी रै आखी उम्र काम आयो।
सन् 1945 सूं 1952 ताणी पत्रकारिता पेटै काम कर्यो। इणी दिनां आप साधना प्रेस, राजपूत प्रेस, जयपुर मांय काम कर्यो। सन् 1952 सूं 1982 ताणी इंडियन रेडक्रास सोसाइटी, राजस्थान रा संगठन सचिव रै रूप मांय काम कर्यो अर आखै राजस्थान बडम पायी।

सन् 1953 मांय राजस्थान भाषा प्रचार सभा री थरपणा कर`र रावतजी सभा रा संस्थापक सचिव बण्या। इणी संस्था सूं 'मरुवाणी` राजस्थानी मासिक री सरूवात हुयी। फगत मरुवाणी रै जोगदान पेटै रावतजी नै आखो राजस्थानी कड़ूम्बो कदै-ई नीं भूल सकै। मरुवाणी अलेखूं राजस्थानी लिखारा त्यार कर्या अर राजस्थानी भासा नै एक गति दीन्ही।

राजस्थान भाषा प्रचार सभा, जयपुर रै कामां मांय राजस्थानी पारखी, राजस्थानी विशारद, अर राजस्थानी प्रथमा परीक्षावां रो संचालण जबरो काम गीणीजै। अैड़ो काम राजस्थानी मांय फगत रावतजी अर कर्यो, आजताणी दूजो कोयी नीं कर सक्यो है। रावतजी आं परीक्षावां री व्यवस्था एक विश्वविद्यालय री परीक्षावां भांत करता अर आखै देस मांय राजस्थानी सूं जुड़ाव राखणवाळा नै परीक्षा केंद्र सूंप`र परीक्षावां आयोजित करवांवता। चूरू मांय श्री बैजनाथजी पंवार, बिसाऊ मांय डॉ. उदयवीर शर्मा, बीकानेर मांय श्रीलाल नथमल जोशी इण केंद्रां रा संचालक हा। आखै देस रा अलेखूं विद्यार्थियां परीक्षावां दीन्हीं अर राजस्थानी सीख`र राजस्थानी सूं जुड़्या।

लेखन रै औळै-दोळै आपां रावतजी री बात करां तो वां री बीस सूं बेसी पोथ्यां विद्वता री साख भरै। महादेव पार्वती री वेलि, दळपत विलास, डिंगल गीत, चंदायन, प्रबंध पारिजात, जसवंतसिंघ री ख्यात आद रो संपादन कर`र जूनी राजस्थानी नै नुंवै ढंग सूं पळोटी। रावतजी आज री कवितावां, आज री राजस्थानी कहाणियां पोथ्यां रै मारफत आधुनिक राजस्थानी नै नुंवां संदर्भ दीन्हां। मीणा इतिहास, आइडेण्टिटी ऑफ रावल्स इन राजस्थान पोथ्यां रावतजी री इतियासूं दीठ नै चवड़ै करै।
दुरसा आढ़ा, प्रिथीराज राठौड़ री जीवनीपरक पोथ्यां मांयली रावतजी री टीप विद्वता बखांणै। जफरनामो अर बसंरी अनूदित पोथ्यां रावतजी नै जबरो अनुवादक घोषित करै। राजस्थानी साहित्यकार परिचय कोश रो दो भाग जकां देख्या है, वै जाणै कै रावत जी कित्ता मिणत करणवाळा मानवी हा। औ पैलो प्रयोग सांवठो हो।
रावतजी री कविता पोथी 'बखत रै परवांण` किण सूं अछानी है। रावतजी री मौलिक सिरजणां इण पोथी मांय भेळी है। जकी वांनै अमर राखसी।

खुद रै लेखण सूं बत्ती रावतजी दूजां रै लेखण सूं मोह राखता। दूजां री रचनावां सुधारण अर छपावण पेटै वां रो घणो-ई बगत जाया होंवतो। पण वो बखत राजस्थानी नै अेक गरबीलो इतियास देयग्यो। श्री यादवेन्द्र शर्मा चंद्र रो उपन्यास 'हूं गोरी किण पीव री`, छत्रपतिसिंह रो उपन्यास 'तिरसंकू`, मनोहर शर्मा संपादित 'कुंवरसी सांखलो` रामनाथ व्यास परिकर री काव्यकृति 'मनवार`, धोकळसिंह री 'मरु महिमा` मदनगोपाल शर्मा री 'गोखै ऊभी गोरड़ी` आद पोथ्यां रावतजी री अगवाणी पांण साम्ही आयी। अै सगळी पोथ्यां आज राजस्थानी साहित्य रै इतियास मांय सोनल आंकां मांय चिलकै।
'राजस्थान का साहित्यकार : समस्याएं और समाधान`, 'राजस्थानी और हिन्दी : कुछ साहित्यिक संदर्भ` आद दस्तावेज रावतजी री जबरी दीठ रा गवाह है।
अै तो फगत गिणावण जोग रावतजी रा कारज है। एक संस्था री मानिंद रावतजी आखी उम्र काम कर्यो। संस्था मांय घणा इस्या काम हुवै, जका नींव रा भाटां री दांईं चवड़ै कोनी दीखै, पण हुवै घणा महताऊ। रावतजी जका काम कर्या अर आखै राजस्थानी भासा समुदाय नै जकी टीम सूंपी, वा गिनार करण जोग बात है।

16 दिसम्बर, 1989 नै रावतजी देवलोक हुया।
आपां सगळां नै रावत जी माथै गरब अर गुमान करणो चाहीजै। खासकर इण कारणै कै वै एक सांचला राजस्थानी हेताळू हा, अर आखी जिंदगाणी ताणी काम करता रैया। रावतजी पढ़ाई मांय जबरा हुंसियार हा अर वै चांवता तो उण बगत घणी आच्छी नौकरी पकड़ सकै हा, पण वां आपरी चावणा फगत राजस्थानी भासा सेवा मांय लगा दीन्ही। तद ईज तो वै आज अमर है।

मीणा इतिहास



आमुख

मीणों का प्रस्तुत इतिहास एक संयोग की बात है। मेरे आदरणीय मित्र कुंवर चंद्रसिंह ने एक दिन मीणों के ऐतिहासिक विवरण के संकलन में जुटे हुए श्री झंूथालाल नांढ़ला से परिचय करवाया और इतिहास लिखाने की उनकी इच्छा का उल्लेख किया। मैं इतिहासकार नहीं हूं, फिर भी मुझे इस कार्य में अनायास रुचि प्रतीत हुई और मैंने हां भर ली। श्री झूंथालाल ने मौखिक तथा लिखित रूप से प्राप्त होने वाली विविध प्रकार की सामग्री एकत्रित कर रखी थी और बही-भाटों से वं ा-वृक्षों की प्रतिलिपियां भी प्राप्त कर ली थी। उक्त सारी सामग्री लेकर वे मेरे पास आए। सामग्री को मोटे तौर पर देखने के बाद उसके आधार पर एक स्थूल जानकारी मात्र दे सकने की संभावना ही मुझे प्रतीत हुई। अत: मेरी कल्पना एक ऐतिहासिक कथानक प्रस्तुत करने भर की थी।
समय बीतता गया और श्री झूंथालाल अपने अथक परिश्रम और लगन से इतिहास-लेखन का कार्य प्रारंभ करने के लिए आव यक साधन जुटाने में जुटे रहे। यह उनकी नि:स्वार्थ भावना और दृढ़ लगन का ही परिणाम था कि वे साधनों को जुटा पाए। काम प्रारंभ करते समय इतिहास की विशय-सूची तैयार करने पर प्रामाणिक सामग्री का नितांत अभाव दृश्टिगोचर हुआ। राजस्थान के इतिहासकारों में कर्नल टॉड को छोड़कर सभी ने मीणों के इतिहास पर या तो कुछ लिखा ही नहीं और यदि कुछ लिखा भी है तो वह अति नगण्य और सहानुभूति से रहित ही नहीं पूर्वाग्रहों से युक्त होकर लिखा है। मीणों को उन्होंने जंगली, चोर-धाड़ी, भाूद्र और आि ाक्षित तथा असंस्कृत जाति घोशित कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझली है। ऐसी स्थिति में उनके उज्ज्वल अतीत की पुश्टि किन आथारों पर की जा सकती थी?
इसी उधेड़-बुन में मैंने कुछ विद्वान मित्रों तथा प्रसिद्ध इतिहास प्रेमियों से चर्चा प्रारम्भ की। गजेटियर विभाग के विद्वान इतिहासज्ञ श्री सिंह से बातचीत के दौरान उन्होंने इण्डियन एण्टीक्वेरी में प्रकाि ात कुछ सामग्री की ओर मेरा ध्यान आकर्शित किया। एण्टीक्वेरी की कई जिल्दें उलटने पर श्री सैलेटोर का एक पर्याप्त लंबा निबंध मिला। जिसमें उन्होंने मीणों की विस्ताररपूर्वक चर्चा की है। इसी लेख से मुझे प्रस्तुत इतिहास का मार्गद र्ान मिला और वह मूलसूत्र मेरे हस्तगत हुआ जिसके सहारे मैं आगे बढ़ता गया। इस लेख से मेरे समूचे दृश्टिकोण में एक नाटकीय परिवर्तन आ गया और मैंने मीणों का एक यथासंभव वैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत करने का नि चय किया। आर्क्योलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, एपीग्राफिया इण्डिका, कैंम्ब्रिजहिस्ट्री, इलियट डाउसन आदि अनेक सुप्रसिद्ध ग्रंथों के पृश्ठों में मुझे विविध प्रकार की उपयोगी जानकारी मिली। श्री झूंथालाल द्वारा संग्रहित भण्डार का यथा ाक्य उपयोग किया।
इसी बीच मीणों के प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों को देखना आव यक समझ मैंने कुछ उत्साही समाज-सेवकों के साथ खोड़, मांची, आमेर, भांडारेज, नई, दौसा, राजोरगढ़, नरैठ, क्यारा, नाराणी, मांचेड़ी आदि स्थानों का भ्रमण किया। इस यात्रा ने मुझे मीणों के बहुसंख्यक थोकों और उनकी परंपरागत भूमि तथा उनके रहन-सहन आदि की जानकारी दी। इस यात्रा में उन सुप्रसिद्ध स्थानों के चित्र भी लिए गए जो इस पुस्तक में यथास्थान प्रकाि ात किए गए हैं। इतिहास संबंधी मौखिक इतिवृत्त की सत्यता जानने के लिए मेरे आग्रह पर श्री झूंथालाल ने मीणा के जागाओं, डूमों तथा बड़े-बूढ़ों की कई गोश्ठियां आमंत्रित की जिनसे विस्तारपूर्वक चर्चा कर मैंने परम्परागत इतिहास की बातें लिपिबद्ध की।
व्यक्तिगत रूप से मैंने जोधपुर, अजमेर, उदयपुर आदि स्थानों की यात्राओं में भी मीणों से संबंधित उपयोगी जानकारी का संकलन किया।
मीणा-समाज के रत्न स्वर्गीय मुनि मगनसागर द्वारा लिखित 'मीनपुराण भूमिका` तथा 'मीनपुराण` नामक ग्रंथों से भी मुझे मीणों के इतिहास की कई उपयोगी बातें ज्ञात हुई। मीणा समाज में यही सर्वप्रथम विद्वान हुए हैं जिन्होंने मीणों का इतिहास प्रस्तुत करने की चेश्टा की। मुनिश्री गोठवाल जाति के मीणा थे और उन्होंने जैन धर्म में दीक्षित होकर संस्कृत, प्राकृत आदि के वाङ्मय का अध्ययन किया था जिससे भारतीय संस्कृत साहित्य का उनको विस्तृत ज्ञान था। 'मीनपुराण` नामक स्वतंत्र पुराण की रचना उनके इस ज्ञान की ही परिचायक है। खेद है कि ऐसे विद्वान को इतिहास विद्या के आधुनिक ज्ञाता का सहयोग नहीं मिल पाया। अन्यथा वे मीणा-समाज का बहुत बड़ा उपकार करने में समर्थ होते।
समय तथा साधनों के अभाव में मीणों का यह ऐतिहासिक इतिवृत्त मात्र प्रस्तुत करके संतोश करना पड़ रहा है। इस महान जाति का विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास तैयार करने के लिये इनके परम्परागत स्थानों का भ्रमण करके प्राचीन स्मारकों को देखने तथा लोक-मुख पर चले आ रहे प्रवादों आदि के संग्रह करने की बड़ी आव यकता है। राजस्थान तथा बाहर के ऐसे सभी स्थानों को देखने के लिये पर्याप्त समय और साधन चाहिये। ऐसा होने पर ही इस जाति का बृहत् इतिहास प्रस्तुत किया जा सकेगा। यह प्रसन्नता का विशय है कि मीणा-समाज के सुपठित लोग इस कार्य की ओर सचेत हैं और वि ोशकर श्री झूंथालाल की लगन और सामर्थ्य से यह कार्य सम्पन्न होगा, ऐसा मेरा वि वास है।
अंत में पुस्तक के प्रस्तुतीकरण में जिन मित्रों तथा विद्वानों से मुझे सहयोग मिला है उन्हें धन्यवाद देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। सर्वश्री रामवल्लभ सोमाणी, सीताराम लाळस, सौभागसिंह भोखावत, कृश्णचन्द्र भाास्त्री, बृजमोहन जावलिया, गिरी ा भार्मा, कानसिंह रावत, अमरीकसिंह तथा कुंवर संग्रामसिंह भोखावत ने मुझे समय-समय पर उपयोगी सुझाव, जानकारी तथा सामग्री देकर अनुग्रहीत किया है। प्रिय मुरलीधर भार्मा ने अनेक कश्ट सहकर मेरे साथ यात्रायें की और सभी स्थानों के फोटो खींचकर मुझे अपना स्नेह दिया।
जयपुर स्थित महाराजा पब्लिक लाइब्रेरी के विद्वान पुस्तकाध्यक्ष श्री दीपसिंह तथा श्री राव का सहयोग भी मेरे लिये बड़ा सहायक रहा। मीणा-समाज के उत्साही और नि:स्वार्थसेवी महानुभावों सर्वश्री गुलाबचंद गोठवाळ, रामसहाय सीहरा, अरिसालसिंह छापोला, चंदालाल व्याड़वाळ, लक्ष्मीनारायण झरवाळ, कि ानलाल वर्मा आदि ने जो रुचि प्रदि र्ात की उससे मुझे प्रेरणा मिली है। समाज के अन्य अनेक साथियों ने भी मुझसे मिलकर मेरे कार्य की सराहना की जिसके लिये मैं उन सबका आभारी हूं। अंत में राजस्थान राज्य के मुख्यमंत्री माननीय मोहनलाल सुखाड़िया तथा राजस्थान प्रदे ा कांग्रेस के अध्यक्ष माननीय श्री नाथराम मिर्धा के प्रति भी मैं कृतज्ञता प्रकट करना चाहता हूं जिन्होंने पुस्तक के लिए 'दो भाब्द` तथा 'सम्मति` लिखने की कृपा की। (जयपुर, ऋशि पंचमी, २०२५ वि.)

बखत रै परवाण



सनमंध

सरदी में सिरखां सा, गरमी पाथरणा
मिलतां तो ब्याज जिसा, बीछड़तां भरणा

साबत हथबीजणियां, टूटता बळीता
जगतां मुसालां सा, (पण) बळता पळीता

अणचींती ओळख सा, क्रितघण बिसराया
जुड़ता तो पुळ सा पण बिलगंता खायां

होठां री मुळक तळै पोटां जहरां री
निजरां मंे गिरजणियां भूंडां चहरां री

मिसरी सा बोलां में, तिरसूळी फांसां
सरमां रै सरबत में, भरमां री गांसां

बगलां में छूरियां अर कत्तरण्यां हाथां
जद-कद भर लेसी अै अणचींती बाथां

लजखाणा कूकरिया, टूकरिया पड़तां
हिरणां री डार भिळै सूकरिया लड़तां

घातेरण छिपकलियां, दबकणती चीती
मसवासण मिनकी, सब बुगलाई नीती

अंग-अंग सिलैपोस, बंध-बंध परबंध
अूजड़ सी गैल-गैल, सूळ-सूळ सरमंध


कुण समझाग्यो

कुण समझाग्यो मनैं ओ मरम
कै राजनीत रा अजगरां सूं लेय`र
दफ्तरां रा कमटाळू घूसखाऊ बाबुआं तकात
सगळां रा कांसां बाटकां में नित परूसीजै
रिकसो खींचतै म्हारै बूढ़ै बाप री थाकल फींचां रो खून-पसानो
कमठाणै भाठा फोड़ती
कै तगारी ले तिमंजलै चढ़ती-उतरती
म्हारी हेजल भा रा हांचळां रो सूखतो दूध
अर नानड़ियै नैं बोबै री ठोड गूंठो चुंघाती
म्हारी बैन रा झरता आंसू अर कसकतो काळजो।

कुण समझाग्यो मनैं
गरीबी हटाओ रा भासणां रो तर-तर खुलतो ओ भेद
ज्यूं झालर बाजतां अर संख फूंकीजता पाण
आपै ही उठता पग ठाकुरद्वारै कानी
अर साध पूरण रा सुपनां में
डोलरहींडै चढ़तो-उतरतो मुरझायो मन,
त्यूं ही तीस-तीस बरसां तक
आये पांचवैं साल
खोखां में घालता गया सुपनां रा पुरजिया
अर उडीकता गया अंधारै में आखड़ता
उण झीणै परगास री गुमसुदा किरण।
ओजूं घूमड़ै है बादळा आज
ओजूं अूकळै है अमूझो
कीड़्यां रै पांखां ओजूं निकळण लागगी है
व्यापगो है रिंधरोही मंे भींभर्यां रो भरणाट
उड़ता बधाऊड़ा देवण लाग्या है कसूण
पण अै मंडाण मंगळ मेघ रा नीं है भायां
सत्यानासी है अकाळ री आ बरखा
धान री ढिगलियां ढाती
छान-झूंपड़ा उजाड़ती
थोथा भरमां में पाळती
एकर फेर पंच-बरसी नींद ज्यूं औसरसी।
इन्दर रै घर राणी बण बैठी
आ महामाया
ओजूं फूंकसी थारा कानां में
'गरीबी हटाओ` रो गुपत ग्यान
अर थे समझता हुयां भी
फेर बण जाओला अणजाण
फेर दूध रै भोळै
पी जावोला घोळ्योड़ो चून
क्यूंकै गरीबी में रैणो थारी नियति है।

काळ

कुण कैवै काळ पड़ग्यो!
कठै है काळ
तिसाई धरती रै ताळवै चिप्योड़ा
बळबळती बाळू सूं भूंज्योड़ा
फूस री टापर्यां अर झूंपां रा
उजड़्योड़ा गांवां अर ढाणियां रा
अै निरभागिया जीव
क्यूं जलम लियो इण खोड़ में!

कायर हा, बुजदिल हा, बेवकूफ हा
आं रा पुरखा
जिका इण निरभागी धरती में,
लुक`र प्राण बचाया!
लूंठा हा, वीर हा, सायर हा वै
जिका माळ री धरती नैं दाबी राखी
अर देसनिकाळो दियो बां नाजोगां नैं

तनतोड़ मैनत कर भी
जिका दो जूण टुकड़ा नीं तोड़ पाया
गधां री ज्याूं लद-लद भी
जिका टेम पर दाणां री जगां लातां खाई
बांरै खातर धरती रा सुख कोनी सिरज्योड़ा
भाग री भ्रगु-संहिता में
बांरी कुंडळी नैं जगां कोनी!

अै अंजन रा कूआ, अै दाखां रा बाग
अै गरणाटा टैक्टर, अै कोसां लग खेत
अै छळछळती नहरां, अै कमतरिया चाकर
अै फारम, अै जीपां, आ दारू, आ चोधर
सुख रा अै साधन बांरा कियां हो सकै!
बीजळी सूं गरमायोड़ा
बीजळी सूं ठण्डायोड़ा
बीजळी सूं चमकायोड़ा
बीजळी ज्यूं पळपळाता
अै आलीसान बंगला!
बांरा कियां हो सकै!

अै कुन्नण ज्यूं दमकती, चन्नण ज्यूं महकती
नागकुंडाळा सा केसां रा जूड़ा सजावती
चोलीदार ब्लाउजां में
गोरै चीकणै डील रा पळका मारती
टेरालीन में सरसर करती
सरसराती कारां नैं दौड़ाती
अै नाजुकड़ी हिरणाखियां
बांरी कियां हो सकै!

धरती रो ओ सुरग बांरो है
जिका भुजबळ रा धणी है
जिका गज रो काळजो अर
मिनख रो मगज राखै
जिकां में हौंसलो है संघर्सा सूं जूझणै रो
अर सामरथ है घिरतै बखत सूं
बांथां भर लड़णै री। ........

चांद : आज अर काल

जुगां-जुगां तक किसन कन्हैया
बाल हठीला, ठिणक-ठिणक कर
रया मांगता चांद खिलूणो।
पण बापड़ी जसोदावां के करती
भर-भर जळ रा ठांव, दिखा कर
झूठ-मूठ रा चांद, भुळाती, लाल मनाती।

पण अब धन-धन भाग धरण रा
काल, जसोदावां जुग री घर हरख मनासी
गोदी में ले किसन लाडला
चांदड़लै रै देस रमासी
सुपनां री परियां नैं सांप्रत-
गिगन-झरोखै बैठ बुलासी, नाच नचासी।

जुगां-जुगां रा भरम टूटसी
आंधा बिसवासां गढ़ भिळसी
चरखा और डोकर्यां गुड़सी
सींगाळा मिरधा भी रुळसी
मामो चांद दिसावर जासी
अब टाबरिया क्यूं बिलामासी!

भेद प्रकटसा अब सदियां रा
पोथां और पुराणां रा सै
उपमा और कल्पनावां सै कूड़ी होसी
चांद लोक रा गढ़-गढ़ लिख्या गपोड़ा
अब तो चौड़ै आसी।

धरती रा जायां रो धूंसो
बण बादळ री गाज घमकसी
चांदड़लै में मिनख जात री धजा फरकसी
देवो-देव-परी सब लुळ-लुळ मुजरा करसी।

कविता री ओळूं साठी में

बाळपणै भोळोड़ी आंख्यां में अंजती सी
कूदती, किलकती, मुळकती ही कविता
रूस रूसणा में, झट मनती मनावणां में
आळ-भोळ बातां में पुळकती ही कविता

ताळी दे तत्तातोड़ लुकती लुकमीचणियां
कुरवायां रूंखां झट चढ़ती ही कविता
चरमरती मगरां पर मारदड़्यां चोटां में
दोटां मन-गिगनारां उड़ती ही कविता

गींधड़ रा गेड़ा में, घमरोळा निरतंती
धमाळां में डफां पर थिरकती ही कविता
उमगती चावां में, भावां भरमीजती सी
अणदेख्या सुपनां सरमीजती ही कविता

चानणियै डागळियै लीलै द्रग असमानां
बावळती चिड़ी सी विचरती ही कविता
अणबोल्यां बोलां रा अूंडा अरथावा-भर्या
रूं-रूं में छंद मधर रचती ही कविता

उळझगी गिरस्थी रे तिसना-छळावै में
लूण-तेल-लकड़ी में फंसगी ही कविता
ज्यूं-ज्यूं करी कोसिसां बांह पकड़ खींचण री
त्यूं-त्यूं और गहरी ही धंसगी ही कविता

आज जद ढळती में चित आई परणेतण
डोकरड़ी पीवरियै अूठ चली कविता
बुध रां चिमगादड़ां घैर्यो मन-ढूंढ़ो अब
भली करी बखत सिर अूठ चली कविता

ओ कुण लुक-छिप आवै

नैण रिझावै मन मुळकावै, रूंआ रास रचावै
ओ कुण लुक-छिप आवै

सोई धरण जगावै, आंगणियै हींगळू ढुळावै
पांख पंखेरू गीत गुवावै, किरणां नाच नचावै
सांझ-गिगन मंे रांगरंगोली छिबिया कुण चितरावै
दूधां धोई रातड़ली में कुण इमरत बरसावै
ओ कुण लुक-छिप आवै

सांसां री सोरम सूं भोळा बायरिया बहकावै
फूलां फाग मचावै, हरिया बागां नैं महकावै
कळियां नैं इतरावै, लोभी भंवरां नैं बिलमावै
आंबलियै री डाळ उणमणी कोयलड़ी चहकावै
ओ कुण लुक-छिप आवै

काजळिया नैणां री कोरां में बैठ्यो सरमावै
फूल गुलाबी मुखड़ै पर क्यूं लाज-गुलाल लगावै
अंगड़ाया सूं छेड़ै, दरपण में गुपचुप बतळावै
अूंची मेड़ी लाल पिलंग रा सुपनां में भरमावै
ओ कुण लुक-छिप आवै

हेलो

संख फूंक्या देवरां
बाज्या ज जंगी ढोल
हेलो आइयो रण खेतर रो
उठ, जाग मा रा लाडला
अब बखत आयो चेत रो!

लोरियां री ताल सोवन-पालणै हुलराइयो
दूधां-धार धपाइयो, निस नैणां जाग जपाइयो
अब उठ, सपूती रा पूत, मांगूं मोल मूंघै हेत री
अब बखत आयो चेतरो
हेलो आइयो रण खेत रो!

जामण जाया, बीर म्हारा, गोद मोद खिलाइया
नित सलूणै, राखड़ी रा तार थे बंधवाइया
उठ, आरतड़ै रै नेग मांगू, सीस दुसमी दैत रो
हेलो आइबो रण खेत रो।

चौमुख दिवलो जोय, रंगमहलां ज सेज संवारती
बादीलै नैं बांहड़ी धर सीस, मुळक मनावती
अब जाग लसकरिया! लजै, सिणगार धण परणेत री
अब बखत आयो चेत रो
हेलो आइयो रणखेत रो।

मेवड़ला झड़ सींच, सूखी धरण धन निपजाइयो
काढ़ ऊंडै काळजै सूं नीर ठंडो प्याइयो
अब जाग मुरधररिया! चुकावण करज बाळू रेत रो
अब बखत आयो चेत रो
हेलो आइयो रण खेत रो।

वीरभोग्या

रूप री रास जिण नैण बिलमाइया
जुद्ध री झाळ तिण नैण प्रजळाइया

रंग री रैण जिण सैण रस माणियो
गाजतै जैण तिण जीस अूफाणियो

हींगळू ढोलियै संग हिरणाखियां
सुरग रो स्वाद जिण सांपरत जाणियो
हींसता हैवरां पीठ घर मांडियां
खीझ भर खींच तिण वीर सर ताणियो

काजळी केस लट लाडली लहरतां
बादळी घेरियो चांद जिण चूमियो
सांघणी फौज रा ढोल घण गहरता
बैरियां घेरियो वीर वो झूमियो

रूप सिणगार सुख स्वाद सब सिस्टि रा
वीर रै भोग विध विरचिया चाव सूं
रूप रस गंध री हाट उण लूट ली
ओज भर अंग जिण साजिया घाव सूं।

सुरसत नैं अरज

किण नै बिड़दाऊ ए सुरसत किण रो जस गाअूं
किण नैं म्हारोड़ा गीतां जुग-जुग पूजवाऊं, अमर बणाऊं

वाणी तूं दीन्ही ए मायड़, किरपा तूं कीन्ही
वाणी रै मोत्यां किण री माळ पुवाऊं, हार सजाऊं

धरती लचकावै कुण वो, आभै नैं तोलै
सातूं समदां री लहरां जिण री जय बोलै
इसड़ो नरसिंह बतादे जिण रो जस गाऊं, जिण नैं बिड़दाऊं

लिछमण सी झाळां जिण री हणवंत सी फाळां
रघुवर सा बाणां जिण रै परळै री ज्वाळा, चण्डी विकराळा
इसड़ी रामायण वाळो राम मिलादे ए मायड़ जिण नैं पुजवाऊं

जिण रा होठां पर सुर रा समद हिलोळै
जिण रा बैणां में गीता ज्ञान झिकोळै
इसड़ो सुद र सण वाळो स्याम दिखादे ए जामण जिण रो जस गाऊं

बलमीकी नावंू मैं तो, द्वैपायन ध्याअूं, तुळसी मनाअूं, सुर रो सूर बुलाऊं
जिण री लीला रा सौ-सौ छन्द रचाऊं
किण नैं बिड़दाऊं ऐ सुरसत किण रो जस गाऊं

हेली ए प्यारी साजन मिलबा जाऊं

मळ-मळ अंग निसंग रगड़-रगड़ कर न्हाऊं
कुन्नण काया तप उजळाऊं गुण-चन्नण चरचाऊं
सील तणो सोरम सरसाऊं निरगुणियै ने ध्याऊं

कंवळा केस कसायां धोऊं परगै हाथ निचाऊं
त्याग तणै झीणै तावड़ियै डागळ बैठ सुकाऊं
आई नेम नेवगण चतरी पीढ़ो ढाळ बिठाऊं

आटी, डोरा, ग्यान-कांगसी, दीपत बोर गुंथाऊं
काजळ, टीकी, बिंदली, लाली मेंहदी हाथ मंडाऊं
सज सोळा सिणगारां चुड़लो अमर सुहाग सजाअूं

पहर पटोळो धम्म घुमंतो घाघरियो घमकाऊं
रंग राचै कांचळी कसूमल घूंघटिये सरमाऊं
अणहद नाद रूणझुणै पायल रंगमहल जद जाऊं
रोम रोम में फुरणा व्यापी सरबस पीव समाऊं

हेली ऐ प्यारी साजन मिलवा जाऊं

मरोड़

कांईं मरोड़ धरै म्हारा मनड़ा कांईं गुमान करै
काया काची गार प्रिजापत हाथां रूप धरै
लख-लख जूण रची सिस्टी मैं पळ-पळ जलम मरै
पीपळ पात पड़ी जळ बुंदकी झोलो लाग झरै
सिख-नख रा सिणगार संजोवै जोबन गरब धरै
फूल खिलै सोरम गरणावै सांझ ढळ्यां बिखरै
बाग-बगीचा महल-माळिया चितरंग चोज करै
अूजड़ खेड़ां ढमढ़ेरां री अब कुण साख भरै
अनधन-लिछमी गरथ भंडारां जुग रा जतन करै
एक अगन चिणगी सूं थारा सारा काज सरै
रच छळ-छंद कपट विस्तारै निस दिन ठगी करै
खुद रे जाळ फंसी खुद मकड़ी देख कुमोत मरै
पद-मद में भूखां भोळां नैं चींथ न यूं इतरै
उछळै गींड गगन में वो ही धरण पड़्यो ठुकरै
कांईं मरोड़ धरै म्हारा मनड़ा कांईं गुमान करै

पीड़

मुळक-मुळक दुख सह म्हारा जिवड़ा हंस-हंस पीड़ पळोट
जिण दी काया उण दुख दीयो वो ही भोगण वाळो
थारी अपणी चीज न कोई जग भरमां रो कोट
मन दुख देवै मन सुख सेवै मन ही कामणगारो
मन कठपुतळी नाच नचावै वो पड़दै री ओट
पीड़ पंखेरू उडतो-फिरतो बिरछ-बिरछ री डाळां
वा बड़भागण कायक जिण घर लेवै दरद करोट
दुख-सुख तो रथ रै पैड़ै ज्यूं फिर-घिर आवै-जावै
संग जनमी संग चाल्यां जासी सुख-दुख री आ जोट
अगन तप्यां सूं सोनो उजळै ओखद सूं रस चूवै
दुख री दाझ करम रा काटै भव-भव रा सै खोट
दुख-बिणजारो बाळद ल्यायो सस्तो देवै सौदो
पैलां पूग बिसाले जिवड़ा करूणा री भर पोट

चाल-कुचाल

चाल कुचाल हुई थारी जिवड़ा बाण कुबाण पड़ी
जिण थारा लाड लडाया जिवड़ा जिण थानैं जनम दियो
जिण री महर खेलिया खाया रम-रम करी थड़ी
अूठत-बैठत सोवत-जागत अूमर बीत चली
उणनैं पण तूं याद कियो ना कदे एक घड़ी
किण कारण पिरथी पर आयो, कांईं काम कर्यो
कुणसी गरज सरी थारै संू कुणसी पार पड़ी
किसी भुळावण किसा संदेसा कुणनै मांड कह्या
मोटा धणी न रीझै थारी बातां बड़ी-बड़ी
टेढ़ो सोचै टेढ़ो चालै टेढ़ घणी बरतै
गत उळटी ना बिसरी थारी जनम-जनम पकड़ी
कुबदी मन अळबादी इन्दर्यां हरदम छेड़ करै
बाद करे अै सिर चढ़ बैठी थारी मती हड़ी
चाल-कुचाल हुई थारी जिवड़ा बाण कुबाण पड़ी





राजस्थानी और हिन्दी - कुछ साहित्यिक संदर्भ



प्राक्कथन

प्रस्तुत संकलन में संग्रहीत निबंध अधिकारी विद्वानों द्वारा लिखे गए हैं। 'राजस्थानी गद्य की एकरूपता` और 'हिन्दी को राजस्थानी साहित्य की देन` विशयक दो विद्वत् गोश्ठियों में आमंत्रित श्रोताओं के समझ पढ़े जाने पर ये निबंध चर्चा के विशय बने हैं। इन गोश्ठियों का आयोजन राजस्थान भासा प्रचार सभा, जयपुर द्वारा किया गया।
निबंधों मे विद्वान लेखकों ने हिन्दी के वर्तमान स्वरूप में राजस्थानी गद्य का औचित्य सिद्ध करते हुए उसकी वि ोशताओं का दिग्द र्ान भी कराया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में इतिहास-लेखकों द्वारा की गई राजस्थानी साहित्य की उपेक्षा पर असंतोश तथा विरोध प्रगट करते हुए निबंधों मंे राजस्थानी के पृथक् अस्तित्व ओर उसके पृथक् इतिहास पर बल दिया गया है।
मातृभाशा को ही ि ाक्षा का माध्यम स्वीकार करने और उसी के फलस्वरूप भाशा की समृद्धि के दृश्टांतों की बात कहकर विद्वान लेखकोें ने यह प्रमाणित कर दिया है कि राजस्थानी भाशा और साहित्य का भविश्य हिन्दी से पृथक् ही अपने अस्तित्व को संवर्द्धित और संपुश्ट करने में निहित है।
यह मानते हुए भी कि राजस्थानी साहित्य का अतीत अत्यनत गौरवान्वित है, तथा राजस्थानी भाशा में अन्तर्निहित सामर्थ्य उसकी साहित्यिक समृद्धि के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम है, इस तथ्य पर भी बल दिया गया है कि आधुनिक युग की आव यकताओं और वैज्ञानिक युग के संघर्शमय जीवन के साथ कदम न मिलाता हुआ राजस्थानी साहित्य यदि अधुनातन विधाओं और नवीनतम प्रयोगों से विलग रहा तो राजस्थानी भाशा और साहित्य केवल अतीत की वस्तुएं ही रह जाएंगी। इसलिए इन निबंधों में रचनाकारों से यह मार्मिक अपील भी की गई हैं कि वे समय की चाल पहिचानें और राजस्थानी भाशा तथा साहित्य को नई दि ाायें और नई गति प्रदान करें।
आधुनिक राजस्थानी भाशा और साहित्य की सभी समस्याओं पर प्रका ा डालना न तो इन गोश्ठियों का लक्ष्य ही था और न इनकी चर्चा ही समग्र रूप से इस संकलन के पृश्ठों में हो पाई है। चर्चा के दो स्पश्ट लक्ष्य है।। एक तो यह कि हिन्दी और राजस्थानी परस्पर सन्निकटता के बावजूद दो पृथक्-पृथक् भाशाएं हैं और दोनों की आव यकताएं तथा संभावनाएं भी न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी के क्षेत्र के लब्धप्रतिश्ठ लेखकों द्वारा जो आज तक यह भ्रम फैलाया गया है कि राजस्थानी हिन्दी की एक बोली मात्र है, उसमें निहितस्वार्थ भाव की गंध स्पश्ट हो गई है। राजस्थान में व्याप्त आि ाक्षा तथा राजस्थानी नरे ाों की इस ओर रही उदासीनता ने हिन्दी क्षेत्र के भाशायी और साहित्यिक आक्रमण को बिना किसी विरोध के सहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि आज राजस्थान के पढ़े-लिखे कहलाने वाले लोग भी अपनी ही मातृभाशा को हेय दृश्टि से देखने लगे हैं। उनकी अज्ञानता ने उन्हें इतना पुंसत्वहीन बना दिया है कि वे न केवल मातृभाशा के अपमान को सहन कर लेते हैं वरन् स्वयं भी उसके सामर्थ्य के प्रति अनास्था प्रकट करते हुए उसे दुगुना अनादृत करते हैं। स्पश्ट है कि ऐसे लोगों के स्वयं की विचार-बुद्धि नहीं होती। वे अखबारी प्रचार और नामधारी निहितस्वार्थ विद्वानों के पक्षपातपूर्ण कथन से बहकावे में आ गये हैं। यह खेद की बात है कि ऐसी अधकचरी विचारधारा के हावी हमारे ि ाक्षा विभाग में सर्वाधिक मात्रा में है। इस स्थिति का एक भयंकर दुश्परिणाम यह हो रहा है कि मातृभाशा के प्रति उपेक्षा, अनास्था और अनादर के भावों को यह विश अनजान रूप से हमारी भावी पीढ़ियों की नस-नस में भरा जा रहा है। इस अनर्थ को तुरंत और प्रभाव ााली रूप से कुचल डालने के लिए राजस्थानी के पुनरुद्धार का पुण्य कार्य व्यक्तियों तथा संस्थाओं का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। इसी कर्त्तव्य की ओर इन निबंधों मे कुछ संयत इंगित किए गये हैं।
राजस्थानी क्षेत्र के सभी विद्वान उपर्युक्त कर्त्तव्य के प्रति जागरूक हैं और उनके लक्ष्य स्पश्ट हैं। राश्ट्रीय एकता के नाम पर राजस्थानी को पददलित करेन का बहाना ढूंढ़ने वाले हिन्दी प्रेमियों को हमने अनेक ा: आ वस्त कर दिया है कि हिन्दी हमारी राश्ट्रभाशा के रूप में हमारी ि ारोधार्य है। हिन्दी का अनादर हमारे लिए वैस ही सह्य नहीं है जैसे देववाणी संस्कृत का। पर राजस्थानी माता के दूध में घुलकर हमारे रक्त में समाई है, वह हमारे कण्ठों से फूट कर स्वरित हुई है। उसकी प्रतिध्वनियों तक ने हमें प्राणोत्सर्ग के लिए विव ा कर दिया है। इसलिए हिन्दी राजस्थान में अव य रहेगी पर राजस्थानी के मोल पर नहीं। सिर के ताज (हिन्दी) की रक्षा अव य की जाएगी पर गला (राजस्थानी) कटा कर नहीं। ऐसे ही कुछ उद्गार एक समारोह में राजस्थान के वर्तमान वित्तमंत्री श्री मथुरादास माथुर ने भी कहे थे।
हिन्दी के साम्राज्यवाद की निन्दा करने वाले कुछ सुलझे हुए हिन्दी क्षेत्र के आलोचकों ने भी यह स्पश्ट कर दिया है कि हिन्दी का हित इसी में है कि वह हिन्दी क्षेत्र के अन्तर्गत मानी जाने वाली भाशाओं- राजस्थानी, भोजपुर, ब्रज आदि कि स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर उन्हें विकसित होने का अवसर दे। जिस प्रकार गुजराती, मराठी, पंजाबी, बंगला आदि अनेक भारतीय प्रादेि ाक भाशाओं से हिन्दी के राश्ट्रभाशा रूप को कोई भय नहीं है, उसी प्रकार राजस्थानी आदि भाशाओं से भी नहीं होगा। वस्तुत: तो हिन्दी का अपना कोई क्षेत्र है ही नहीं। सभी क्षेत्रीय भाशाओं के सम्पर्क-सूत्र के रूप में अखिल राश्ट्र में हिन्दी व्यवहृत है और होती रहेगी। यही उसका राश्ट्रभाशा स्वरूप है।
चर्चा का दूसरा प्र न राजस्थानी के सम्यक् विकास के लिए उसके गद्य की एकरूपता का है। यह प्रसन्नता का विशय है कि राजस्थानी साहित्यकारों ने पहली बार एक मंच पर बैठकर सभी प्रकार के भेदभावों को भुलाकर राजस्थानी गद्य की एकरूपता के कुछ मूल प्र नों को सर्वसम्मत रूप से निर्णीत किया। पर कागाजों पर किए गए निर्णयों को क्रियान्वित करेंगे वे क्षेत्रीय रचनाकार जो निश्पक्ष रूप से उन्हें अपनी रचनाओं में व्यवहृत करेंगे। आज राजस्थान में कोई मोहनदास कर्मचंद गांधी नहीं है जो हमारी जोड़नी (व्याकरण रूप) पर दृढ़ता से लिखे कि इसमें अब और आगे परिवर्तन करने का कोई अधिकार किसी भी विद्वान को नहीं होगा। साहित्यिक दलबंदी से ग्रस्त हमारे कुछ भाई ऐसे हैं जो इन निर्णयों की उपेक्षा करना ही उचित समझते हैं और अपनी संकुचित क्षेत्रीय बोली में रचनाएं करते जा रहे हैं, संभवत: यह समझकर कि जो कुछ वे लिख रहे हैं वही अमर बन जायेगा। एक तरह से राजस्थानी के योजनाबद्ध विकास की दि ाा में ये कंटकस्वरूप अड़चने हैं। इन्हें कुचलने के लिए स ाक्त पदों की आव यकता है। राज और समाज की उदासीन वृत्ति तथा आपाधापी के इस युग में उचितानुचित की समीक्षा किए बिना दिए जाने वाले पक्षपातपूर्ण राजकीय प्रश्रय ने ऐसी प्रवृत्तियों को घातक रूप से बढ़ने के अवसर प्रदान किए हैं। पर भटके हुए यात्री या तो मार्गभ्रश्ट होकर कहीं बियावान में थककर समाप्त हो जाते हैं अथवा लौटकर सही दि ाा में चल पड़ने लगते हैं।
राजस्थानी के आधुनिक समर्थकों ने भी यदि इस गंभीर प्र न पर पूरा ध्यान नहीं दिया तथा अपनी रचनाओं को प्रांतव्यापी स्वरूप प्रदान नहीं किया तो राजस्थानी का द्विवेदी युग पुन: इं ााअल्लाखां तथा लल्लूलाल का युग बन जायेगा।
ऊपर कहे गये भाब्दों मंे कुछ कड़ुवाहट का अनुभव हो सकता है पर यह अप्रिय सत्य हमारी वर्तमान अवस्था के लिए सम्यक् उपचार का कारण बन सके तो भर्त्सना का पात्र बनने में इन पंक्तियों के लेखक को प्रसन्नता होगी। (आखातीज, २०२६)



लखाण



दो आखर

अध्यापक समाज रै सबसूं बेसी जागरूक वर्ग रा लोग समझ्या जावै। मामूली तनखा में गांवा-कस्बां मंे जिंदगी री मुसकलां सूं जूझता अै बुद्धिजीवी आपरै आस-पास रै समाज नैं अर अपणै आपनैं किण भांत अनुभवै या एक जाणन अर परखण री बात है।
राजस्थान रा सिक्षकां री लिख्योड़ी अर इण संग्रै में भेळी कर्योड़ी अै कुछेक रचनावां आपणी जिज्ञासा नै पूरै। प्राय: सिक्षकर उण अभावग्रस्त परिवारां सूं आवै ज्यांनै जे खाता-पीता मान भी लेवां तो कम सूं कम ऊपरलै वर्ग रा तो नीं कह सकां। हो सकै इसा लोग महाविद्यालयां में मिल जावै। आम अध्यापक तो वो आम आदमी ही है जिकैरी माली हालत चोखी नीं कैयी जा सकै।
कुछेक सधेड़ा लेखकां री बात छोड़ भी देवां, जिका आपरै चौगिरद सूं दूर रा विसयां पर भी सांगोपांग कलम चला सकै, तो घणखरा लेखक आपरै आस-पड़ोस री समस्यावां सूं उळझता दीखै। अै एक जागरूक लेखक खातर सांतरा लक्खण है। पढ़णवाळा टाबरां री निजू मुसकलां, ट्यूसनां रा चक्कर, अध्यापकां री पारिवारिक दिक्कतां, यां सगळां रै होतां थकां भी राश्टप्रेम, चारित्रिक महानता अर दूजा भाा वत मूल्यां नैं थांम्या राखण वाळी कहाणियां अध्यापक वर्ग री खासियत है।
कवितावां रा विसय कहाणियां सूं बेसी अर विविधता लियां है। कवितावां में अध्यापक कवियां री निजू अनुभूतियां नैं तो नकारी नीं जा सकै पण बहोत थोड़ा कवि इसा हुवै जिका ढर्रै सूं टळर कोई नई बात, नई वेदना या नई चेतना दे सकै। फैर भी अध्यापक कवि साहित्य रै मौजूदा बहाव सूं कट्योड़ा नहीं कैया जा सकै।
एक कमजोरी सबसूं पैलां लखावै जिकी या है कै प्राय: लेखक लिखण में बेसी अर पढ़ण में कमती विसवास करै। लिखणो अभ्यास सारू तो ठीक कैयो जा सकै पण जो कुछ लिखै उणनैं छपावण री उतावळ समझ में कोनी आवै। खुद छपण सूं पैलां जे लेखक दूजा छप्योड़ा आछा लेखकां नैं पढ़ै अर परखै तो वांरो खुद रो चिंतवण अर लेखक दोनूं नीतरै।
विसय-वस्तु रै साथै ही भौली री मंजावट अर निखाळोपणो भी घणो जरूरी है। जिण लेखक री आपरी न्यारी अर अळगी रचना भौली है वो दूजां सूं न्यारो ओळख्यो जावै। इण वास्तै भौली गढ़णै में भी पूरी खेचळ अर सुभावीकपणै री जरूरत है। इण प्रसंग में लेखक जे दूजा कारीगरां-कळाकारां री बात समझै-परखै तो वांनै असलियत रो बेरो पटै। लगातार रै अभ्यास सूं ही दूजा कारीगर इसी बसत बणा सकै जिणनैं बजार में राखी जा सकै। अर उण रै पछै और भी बेसी मींनत संू वो इसी चीजां बणा सकै जिकी पारखियां रै साम्हीं राखी जा सकै। रचनावां बाबत भी यो ही क्रम रहणो जरूरी है। पचासां-सैंकड़ां पानां लिख्यां पछै कोई पानो-दो पानो छपण-छपावण जोगा बणै। इण साच नैं लेखक समझ लेवै तो बै बेसी सफळ हो सकै।
काव्य रचना आजकल मंदी पड़ती जा री है। तुकांत गद्य तो बोदो मान्यो जावण लाग्यो। पण जिका कवि इण सूं हेत राखै वै तुकांत काव्य रा नियमां नै समझै अर निभावै जद ही पार पड़ै। बियां काव्य भले तुकांत हुवो या अतुकांत या जाबक गद्य, उण में एक भांत रो प्रवाह, गति, विराम जरूरी है। गद्य सूं पद्य जद ही न्यारो हुवै जद अै गुण उण में आ जावै।
एक बात ध्यान सूं देखण री फेर है। राजस्थानी भासा रै प्रचार-प्रसार री जड़ां में एक सबळी दलील या ही है कै वा आपणीा घर री बोली है, मां रै दूध में घुल्योड़ी। इण रै उण सुभावीकपणै नैं भुळाणो नीं चाईजै। एकरूपता री कोसिसां करतां थकां भी आपरी निजू बोली रो मिठास बिसराणै री चीज कोनी। आज झुकाव यूं दीखै कै लोग 'अैड़ा ह्वै, बड़ियोड़ै, म्हैं` आद अनेक ठेठ मारवाड़ी रा सबदां नैं मांडणो ही राजस्थानी समझै, भले ही वै बांरी खुद री बोली में सफा ओपरा लखावै। इण होड़ सूं बचणै री जरूरत है।
जिका लेखक गांवां रो ठेठ रैवासी है वै गांवां रा सबदां, कैबतां-मुहावरा अर बात कैवण रै खास लहजै सूं भासा नैं ओपती बणा सकै। ठेठ हिन्दी-संस्कृत रा सबद तो जद ही लेवण री जरूरत है जद आपां उण बात नैं आपणा रात-दिन रा सबदां में आपणै समझण लायक ढंग सूं नीं कह सकां। इण वास्तै हिन्दी री तरज री नकल कर देणी कोई चोखी बात कोनी।
अै सगळी बातां खाली अध्यापकां पर ही लागू होती हुवै इसी बात कोनी। आ दिक्कत तो राजस्थानी रै आम लेखक री है।
राजस्थान रै सिक्षा विभाग राजस्थानी भासा अर उणरै साहित्य नैं बढ़ावो देवण सारू या योजना लागू करी है सो बधावणी-सरावण जोग है। इसा संग्रहां री गिणती बढ़ै अर लेखकां री निजी पुस्तकां भी न्यारा-न्यारा विसयां री छपती रैवै तो सिक्षा विभाग रो घणो बड़ो योगदान रैवै।


जसवंतसिंघ री ख्यात



प्राक्कथन
इतिहास-लेखन
प्राय: कहा जाता है कि भारत में इतिहास-लेखन की परम्परा अकबर के समय से प्रारंभ हुई। आईने-अकबरी के लेखन-प्रसंग में अबुल फ़ज्ल को राजपूत राजाओं के इतिवृत्तों की आव यकता हुई, जिससे राजस्थान के राजपूत राजवं ाों ने अपने-अपने वं ाों की ख्यातें बढ़ा-चढ़ाकर लिखवाई। कुछ अं ाों में यह बात सही हो सकती है, पर जिस दे ा में हजारों वर्शों का इतिहास पुराणों के रूप में संग्रहित करके सुरक्षित किया गया और जहां कल्हण एवं जोनराज की राजतरंगिणियां जैसे इतिहास-ग्रंथ लिखे गए, उस पर इतिहास के विशय में इस प्रकार का दोशारोपण ठीक नहीं होगा। यदि एक क्षण के लिए भाटों, रावों, जागों तथा ऐसे ही अन्य वं ाावली रखने वालों की प्रामाणिकता की बात छोड़ भी दें, तो क्या इस प्रकार के व्यापक प्रयत्न इतिहास के क्षेत्र में नहीं आते? निि चत रूप से ही यह परिपाटी न केवल व्यक्तियों के इतिहास-प्रेम की साक्षी है, अपितु जन-साधारण के परिवारों की वं ाावलियों और उनके कालक्रम को सुरक्षित करने का एक प्रयास भी है। ऐसा ही प्रयास उन पंडों का भी है जो तीर्थस्थानों पर जाने वाले परिवारों की जानकारियां रखते आए हैं। यह दूसरी बात है कि व्यावसायिकता पर आधारित होने और साधनों का अभाव होने के कारण इस प्रकार के वृत्त अूलजलूल रूप से गढ़कर अवि वसनीय बना दिए जाते हैं।
हमें यहां मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि राजवं ाों में तथा उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों-राजपुरोहितों-आमात्यों तथा कार्यालयाध्यक्षों द्वारा राजकीय तथा निजी स्तर पर भी अपने समय का सभी महत्वपूर्ण वृत्त लिपिबद्ध किया जाता था। अन्य रुचिसम्पन्न लोग भी ऐसा करते होंगे। इस संबंध में जैन यतियों आदि की लिखी धार्मिक एवं अन्य साहित्यिक रचनाओं और विज्ञप्ति पत्रों में समसामयिक इतिहास की जानकारी दी हुई मिलती है। 'पुरातन प्रबंध-संग्रह` जैसे ग्रंथों में प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं के वृत्त संकलित मिलते हैं। 'कान्हड़दे प्रबंध` के कवि पद्मनाभ ने यह संकेत किया है कि उनका वर्णन जालौर के भाासकों के यहां उपलब्ध पुरानी पत्रावली पर आधारित है। ('मई सांभलीया आगिली भास`-कान्हड़दे प्रबंध, जोधपुर, पृश्ठ २१९, यहां 'भास` से तात्पर्य 'भाशा`-लोकभाशा में लिखित विवरण से है।)
ख्यात-लेखन परम्परा :
आगे चलकर राजस्थान के राजवं ाों के इतिवृत्त दोनों ही ढंग से लिखे जाते रहे। एक तो राजकीय स्तर पर उनके कार्यालयों के माध्यम से तथा दूसरे राजघरानों से संबंधित लोगों द्वारा निजी रूप से। एक और प्रकार था, वि ोश इतिहास लेखक नियुक्त करने का, जैसे उदयपुर के कविराजा भयामलदास, बूंदी के सूर्यमल मिश्रण तथा बीकानेर के दयालदास सिंढ़ायच को चलाकर यह काम सौंपा गया। आगे जाकर इसी पद्धति पर गौरी ांकर हीराचंद ओझा, मथुरालाल भार्मा आदि ने दे ाी रजवाड़ों के इतिहास लिखे। 'मुहता नैणसी री ख्यात` तथा ऐसी ही अन्य कई अनाम ख्यातें संबंधित व्यक्तियों द्वारा निजी रूप से लिखी गई। 'बांकीदास री ख्यात` (जो एक टिप्पणियों का संग्रह मात्र है) भी इसी कोटि की है। अनेक कायस्थ परिवार, जो अधिकां ा में भाासकों के यहां कार्यालयों में नियुक्त रहते थे, इस प्रकार के प्रयत्न करते आए हैं। 'जोधपुर हुकूमत री बही` ऐसे ही एक कायस्थ का प्रयत्न है। हाड़ौती के एक कायस्थ ने कोटा के महाराव किसोरसिंह के साथ दक्षिण में कुछ वर्श बिताते हुए सम-सामयिक जानकारी दी है। यदि ख्यातों के इस पक्ष पर भाोध की जाए तो राजस्थानी इतिहास-लेखन पर अच्छा प्रका ा पड़ सकता है।
राजा वि ोश के राज्य का वर्णन करने वाले कवियों तथा गद्य-लेखकों ने भी उसके पूर्वजों का वर्णन देते हुए उसके समय की जानकारी विस्तार से दी है। अकबरकालीन 'दलपत विलास` नामक गद्य-ग्रंथ तथा 'अजीत विलास` नामक काव्य-ग्रंथ इस प्रकार की रचनाओं के उदाहरण हैं।
तिंवरी पुरोहित की ख्यात :
प्रस्तुत ख्यात 'तिंवरी पुरोहित री ख्यात` के नाम से उल्लिखित एक ग्रंथ का अं ा मात्र है। जसवंतसिंह से संबंधित यह अं ा राजस्थान अभिलेखागार में कुछ वर्शों पहिले की गई लिपि के रूप में प्राप्य है। पृथक्-पृथक् राजाओं से संबंधित अन्य कई ख्यातों के अं ा भी वहां उपलब्ध हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
१. सिंघी प्रयागदास कृत ख्यात : गजसिंह (जोधपुर)
२. मुरारिदान कविया कृत ख्यात : जसवंतसिंह (जोधपुर)
३. बारठ जैतदान कृत ख्यात : जसवंतसिंह (जोधपुर)
४. महाराज मानसिंघजी कृत राजविलास : मानसिंह (जोधपुर)
अन्य कई ग्रंथाकों में भी (४७८९/१०३/१३, ४८४०/१०३/६१, ४७५२/१०२/५, ४७५३/१०२/६, ४७५४/१०२/७, ३७४२/६०/२०) जसवंतसिंह से संबंधित इतिवृत्त हैं।
ये सभी अपेक्षाकृत नई प्रतिलिपियां मूल ग्रंथों से करवाकर किसी निि चत उद्दे य के लिए मंगवाई गई प्रतीत होती हैं। संभवत: ओझा या रेऊ आदि के उपयोग के लिए ऐसा हुआ हो, क्योंकि जोधपुर राज्य के यही दो क्रमबद्ध इतिहास आधिकारिक रूप से लिखे गए हैं। जिस प्रकार बड़े राजघरानों की ये ख्यातें लिखी गईं उसी भौली पर कूंपावतों का इतिहास, चांपावतों का इतिहास, आसोप का इतिहास, जैसलमेर का इतिहास, बदनोर का इतिहास आदि अनेक ग्रंथ समय-समय पर लिखे गए, जिनकी प्रतिलिपियां उपर्युक्त अभिलेखागार एवं ठिकानों के निजी संग्राहलयों में मिलती है। कुछ को आधुनिक रूप देकर प्रकाि ात भी किया जा चुका है।
'तिंवरी` का ठिकाना राजपुरोहितों को राव सूजाजी के समय में, १५८५ वि. की कार्तिक भाुक्ला १५ को अन्य २५ गांवों के साथ दिया गया। (राजपुरोहित जाति का इतिहास, भाग-१, पृश्ठ-१५० के संलग्न वं ा वृक्ष; पृश्ठ-१४८ पर 'तिंवरी` राव जोधा द्वारा दिया गया बताया गया है।) उक्त ठिकाने की 'बही` में जसवंतसिंह के प्रस्तुत वर्णन की भांति अन्य नरे ाों के वर्णन भी दिए गए हैं। 'तखतसिंह` के समय का वर्णन इतिहासकार जगदी ासिंह गहलोत के संग्रह में उपलब्ध होने से यह अनुमान सही प्रतीत होता है। 'बही` में ये वर्णन समय-समय पर लिखे गये होंगे। पर ऐसा भी देखने में आया है कि उन वर्णनों को लगातार सुधारा जाता रहा। जसवंतसिंह के प्रस्तुत वर्णन में महाराजा मानसिंह तक के उल्लेखों से यह बात सिद्ध होती है। दूसरी ख्यातों से भी पूरी सहायता ली गई होगी। 'आंबेर की ख्यात` के ऐसे एकाध उल्लेख प्रस्तुत ख्यात में प्राप्त होते हैं। दूसरे ख्यात-लेखक भी ऐसा करते थे, जैसा कि मथाणिया के जैतदान बारहठ ने भी अपनी ख्यात मंे 'तिंवरी प्रोहित री ख्यात सूं नकल किया` लिखकर व्यक्त किया है। ऐसी परिस्थिति में 'तिंवरी बही` का समग्र अवलोकन किए बिना इस विशय मंे अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा।
बहियों या ख्यातों के लेखक समय-समय पर अन्य स्रोतों से सामग्री का संकलन करते रहते थे, यह बात ऊपर के उद्धरणों से स्पश्ट है। 'जोधपुर हुकूमत री बही` में भी, जो अपेक्षाकृत अधिक समसामयिक समझी जाती है, ऐसे स्रोतों का उल्लेख है। जसवंतसिंह से संबंधित अनेक वर्णन, संवतें-तिथियां-वार तथा व्यक्तियों के नाम, प्राय: एक ख्यात के दूसरी ख्यात से मेल खाते हैं। 'मारवाड़ रा परगना री विगत`, 'मुहता नैणसी री ख्यात`, 'जोधपुर हुकूमत री बही`, 'मारवाड़ री ख्यात` आदि के अधिकां ा वर्णन अक्षर ा: 'तिंवरी प्रोहित री ख्यात` से मेल खाते हैं। इसका एक मात्र कारण यही हो सकता है कि कालक्रम मे पीछे लिखे जाने वाले प्रत्येक ग्रंथ में पूर्ववर्ती ग्रंथों से मदद ली गई है, जो स्वाभाविक भी है। उन स्रोतों का कहीं उल्लेख नहीं होने के कारण पता लगाना बड़ा दुश्कर है।



प्रबंध पारिजात



उपोद्धात

प्राचीन काव्यांे का अध्ययन
हिन्दी के प्राचीन काव्यों में राजस्थान के लेखकों द्वारा रचित काव्य अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही अध्ययन के पाठ्यक्रमों में स्थान पा सके हैं। चौदहवीं से अठारहवीं भाताब्दी तक राजस्थान के लेखकों ने डिंगल, पिंगल तथा समसामयिक लोक भाशाओं में अनेक विशयों की रचनायें की हैं। प्रचुर परिमाण में लिखी गई जैन धार्मिक रचनाओं को पृथक् भी करदें तो जैनेतर कृतियों में भी अनेक उत्कृश्ट काव्य इन भाताब्दियों में बहुतायत से रचे प्राप्त होते हैं। पंद्रहवीं भाताब्दी के रणमल्ल छंद, खीची अचलदास री वचनिका, सदयवत्सवीर प्रबन्ध, हंसाउली तथा वीरमायण जैसे ग्रंथों में से एकाध ही अध्ययन का विशय बन सका है। इसी प्रकार सोलहवीं भाताब्दी के कान्हड़दे प्रबंध, हम्मीरायण, गणपति का माधवानल कामकंदला प्रबंध, जआितसीरउ छंद आदि ग्रंथों को लिया जा सकता है। सतरहवीं तथा अठारहवीं भाताब्दियों में तो ऐसे गं्रथों की संख्यायें उत्तरोत्तर बढ़ती गई जिनमें अनेक उच्चकोटि की रचनायें थीं। हालांझालां रा कुंडलिया, हरिरस, महादेव पार्वती री वेलि, नागदमण, गजगुणरूपक, रतन महेरादासोत री वचनिका, दुरसा आढ़ा का काव्य, कु ाललाभ की रचनायें, रामरासो, राजरूपक, सूरजप्रका ा, विन्हैरासो आदि ग्रंथ अभी अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं।
कुछ विद्वानों ने उपर्युक्त ग्रंथों में से कुछ को अपने अध्ययन का विशय बनाकर, भाब्दार्थ, भावार्थ, टिप्पणियों आदि से समन्वित सुसम्पादित संस्करण प्रस्तुत किए हैं, जो अभिनंदनीय है। पर इन ग्रंथों में किए गए अर्थों को भी आगे परिश्कृत करने की दि ाा में साहित्य-समाज ने कोई रुचि प्रदि र्ात नहीं की है। इसके अभाव में धीरे-धीरे प्राचीन काव्यों का सही अर्थ बताने और समझने वाले पारखियों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। इसलिए यह आव यक है कि छात्रों को प्राचीन काव्यों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया जाए। ऐसा तभी संभव है जब अधिक से अधिक प्राचीन कवियों के काव्यों की बानगियां उनके अध्ययन की विशय बनाई जायें।
प्रस्तुत संकलन मंे सम्मिलित कवि नरपति नाल्ह, भांडउ व्यास और कु ाललाभ अपने-अपने समय की साहित्यिक धाराओं का सम्यक् प्रतिनिधित्व करते हैं। नरपति के 'वीसलदेवरास` में तेरहवीं भाताब्दी मे प्रचलित भाृंगारपरक लौकिक प्रेमाख्यान को रासनृत्य गायन भौली में प्रस्तुत किया गया है। भांडउ व्यास के 'हम्मीरायण` में वीरगाथात्मक चरित काव्य के लक्षण स्पश्ट हैं। चरित, चउपई, रासो आदि ऐसे काव्य इन भाताब्दियों की प्रमुख रचनायें होती थीं। कु ाललाभ की माधवानल कामकंदला चौपई प्रेमकथाओं के प्रचलित स्वरूप का प्रतीक है जिसे जैन लेखकों ने भाील, सदाचार, सतीत्व आदि सद्गुणों की प्रतिश्ठा के लिए माध्यम बनाया। इस प्रकार विभिन्न कालों में लिखी गई इन प्रतिनिधि रचनाओं से राजस्थान में लिखे गए साहित्य की जानकारी हो सकेगी।
इन कवियों तथा इनकी रचनाओं के विशय में यहां समीक्षात्मक सामग्री देने के अतिरिक्त भाब्दार्थ एवं टिप्पणियां भी दी गई हैं। कवियांे के निजी ज्ञातव्य, रचनाकाल, काव्य-परम्परा, भाशा, साहित्यिक सौन्दर्य आदि देकर काव्यों पर पूरा प्रका ा डालने का प्रयत्न भी किया गया है। समीक्षाओं में विद्वानों की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए भी एक नया दृश्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार मान्यताओं के पिश्टपेशण से हटकर स्वतंत्र मत का प्रतिपादन भी हो सका है। ऐसा करना स्वतंत्र चिन्तन को प्रेरित करने के लिए उचित रहेगा।

जफरनामो



बिदै साक़िया सागऱे सब्ज रंग
कि मारा बकारस्त दर वक़्ते जंग
तो मारा बिदै ताकुनम् ताज़ा दिल
कि गौहर बिरारम् ज़ि आलूदा गिल

बिदै = दे, साकिया = कलाळी (परमात्मा), सागऱे सब्जरंग = लीलै रंग रो पात्र, मारा = म्हारै खातर, बकारस्त = काम रो हुवै, दर वक़्ते जंग = जुद्ध रै बखत, तो = तूं, मारा = मनैं, ता = जिण सूं, कुनम् = करूं, ताजा दिल = दिल नैं ताजा, कि = कै, गौहर = मोती, बिरारम् = निकाळूं, ज़ि = सूं, आलूदा = लिपट्योड़ी, गिल = माटी

प्याली दे साक़ी वो, केसर रंग
साधै काम म्हारलो, जाग्यां जंग
दाव असली दे इसो, ताजो तेज
कढ़ै मोती काद सूं, लगै ने जेज (चंद्रसिंह)

आज कळाळी प्यालो, इसड़ै मद सूं भरदे
जुड़ै जंग जद, जो सकळा कारज सिध करदे
भरै ताजगी मन में, जिण सूं उमंगां आवै
जो कादै सूं काढ़`र, मोती बारै लावै (रावत सारस्वत)

बनामे खुदावन्दे तेगो़ तबर
खुदावन्दे तीरो सिनानो सिपर

बनामे = नांव लेय`र, खुदावन्दे = भगवान रो, तेगो = तरवार, तबर = छुरो, तीरो = अर बाण, सिनानो = अर बरछी, सिपर = ढाल

सिमरूं ईस, तेग रो सिरजणहार
बाण, ढाल, बरछी, भल तेज कटार (चंद्रसिंह)

सिमरूं सिरजणहार, जिकै सिरजी तरवारां
सिरज्या तीर, कटार, ढाल, बरछां री धारां (रावत सारस्वत)

खु़दावन्दे मर्दाने जंग आज़मा
खुद़ावन्दे अस्पाने पा दर हवा

मर्दाने = मोट्यारां, जंग आज़मा = जुद्ध में आजमायोड़ा, अस्पाने = घोड़ा, पा = पग, दर = में

सिमरूं ईस रच्या जिण, रण जूझार
पून वेग दोड़ंता, भल तोखार (चंद्रसिंह)

सिमरूं सिरजणहार, जंग जूझण जोधारां
पवन पंथ पग धरै, जिसा ताता तीखारां (रावत सारस्वत)

हमां कू तुरा पाद ााही बिदाद
बमा दौलते दीं पनाही बिदाद

हमां = वो ही, कू = जिको, तुरा = तनैं, पाद ााही = राज, बदाद = दी, बमा = मनैं, दौलते = री दौलत, दीं पनाही = धरम रुखाळी

बादसाही तनैं दी, जिण करतार
धरम धारण धन दियो, मनैं अपार (चंद्रसिंह)

वो ही एक करतार, बाद ााही दी तोनैं
धरम रुखाळण काज, उणीं दी दोलत मोनैं (रावत सारस्वत)

महादेव पारवती री वेलि



भूमिका

'वेलि` नामकरण और साहित्य

'वेलि` साहित्य संबंधी सम्पूर्ण चर्चा के मूल में राठौड़ प्रिथीराज कृत 'क्रिसन रुकमणी री वेलि` है। प्रस्तुत वेलि अपने रचनाकाल से ही कवियों और आलोचकों की प्र ांसा का विशय बनी आ रही है। डा. एल.पी. टैस्सीटोरी द्वारा इसके मूल पाठ का प्रका ान किये जाने के बाद दे ाी विद्वानों का ध्यान इस ओर पुन: आकर्शित हुआ, और बीकानेर के ठाकुर जगमालसिंह द्वारा की गई टीका को बीकानेर के ही तीन विद्वानों- सर्व श्री सूर्यकरण पारीक, ठाकुर रामसिंह तथा नरोत्तमदास स्वामी ने सम्मिलित रूप से आधुनिक विधि से सम्पादित कर प्रकाि ात करवाया। इस उत्कृश्ट ग्रंथ को हिन्दी साहित्य की विभिन्न परीक्षाओं में पाठ्यग्रंथ के रूप में निर्धारित कर साहित्य जगत् ने समुचित आदर भी दिया। पाठ्यग्रंथ बन जाने के कारण व्यावसायिक दृश्टि से अन्य विद्वानों ने भी इसे अपने ढंग से सम्पादित और प्रकाि ात कर कुछ संस्करण निकाले।
धीरे-धीरे कुछ विद्वानों के मन में यह उत्कण्ठा हुई कि 'वेलि` नाम धारी रचनाओं की खोज कीजाय और यह देखा जाय कि ्रप्रिथीराज की 'वेलि` उस परम्परा में कहां और कैसी ठहरती है। इस प्रेरणा को लेकर अनेक प्रयत्न किये गये और 'वेलि` नामधारी रचनाओं की एक विस्तृत सूची सामने आई। एक अन्वेशक ने इसे अपने अनुसंधान का विशय भी बनाया और पीएच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की।
जहां तक अन्वेशकों के प्रकाि ात विचारों को पढ़ने को अवसर मुझे प्राप्त हुआ है, मेरी यह धारणा बनी है कि इस विशय को आव यकता से अधिक तूल दिया गया है। उचित तो यह हो कि हम इस अध्ययन को तीन मुख्य पहलुओं तक ही सीमित रखें। पहला तो यह कि 'वेलि` नाम धारी सम्पूर्ण रचनाओं को क्या एक सूची में रखना किसी भी स्थिति में उचित है? विशय, छंद और भौली किसी भी दृश्टि से ये रचनायें क्या एक श्रेणी में आ सकती हैं? वि ोश तौर पर जैन और भक्ति तथा लोक भौली की 'वेलि` नाम धारी रचनायें चारणी वेलियों से क्या कुछ भी मेल खाती हैं?
दूसरा यह कि 'वेलि` भाब्द तथा इस नामकरण के अधीन प्र्राप्य अनेक चारणी व इतर रचनाओं की विशय वस्तु के अध्ययन द्वारा यह निश्कर्श निकाला जाना चाहिए कि यह नामकरण 'वेलियो` छंद के कारण है अथवा 'वेलि` भाब्द में निहित किसी विि ाश्ट अर्थ के कारण अथवा दोनों के कारण है।
तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण प्र न यह है कि साहित्य में 'वेलि` नामक रचनाओं का श्रीगणे ा और कवियों में इस भौली का प्रचलन का प्रारम्भ कब और किस रचना से माना जाना चाहिए।
उपर्युक्त तीनों प्र नों का संतोशजनक समाधान प्राप्त होने पर इस विशय पर विस्तृत अध्ययन की संभवत: कोई वि ोश आव यकता नहीं प्रतीत होगी। आइये, हम इन प्र नों पर कुछ विचार करने का प्रयत्न करें।
'वेलि` नाम धारी जिन रचनाओं का अभी तक पता लगा है, या जिनके पाये जाने की संभावना भी हो सकती है, उन्हें हम निम्नलिखित भाीर्शकों में विभाजित कर सकते हैं। हर भाीर्शक के अधीन ज्ञात वेलियों में से कुछ का नामोल्लेख भी हम करदें :-
चारणी वेलियां-
१. क्रिसन रुकमणी री वेलि : प्रिथीराज
२. महादेव पारवती री वेलि : किसनउ
३. किसनजी री वेलि : करमसी सांखला
४. गुण चांणिक वेलि : चूंडो दधवाडियौ
५. देईदास जैतावत री वेलि : अखौ भाणौत
६. रतनसी खींवावत री वेलि : दूदौ विसराल
७. उदैसिंघ री वेलि : रामो सांदू
८. राजा रायसिंघ री वेलि : मालो सांदू
९. राव रतन री वेलि : कल्याणदास महड़ू
१०. सूरसिंघ री वेलि : गाडण चोलो
११. अनोपसिंघ री वेलि : गाडण वीरभांण
१२. चांदाजी री वेलि : बीठू मेहो
जैन वेलियां-
१. चिहूंगति वेलि : वांछा
२. जम्बू स्वामी वेलि : सीहा
३. रहनेमि वेलि : सीहा
४. पंचेन्द्रिय वेलि : ठकुरसी
५. गरभ वेलि : लावण्यसमय
६. क्रोध वेलि : मल्लिदास
७. सुद र्ानस्वामी नी वेलि : वीरचंद
८. लघुबाहुवलि वेलि : भाांतिदास
९. जइत पद वेलि : कनकसोम
१०. ऋशभगुण वेलि : ऋशभदास
११. वारह भावना वेलि : जयसोम
१२. सुजस वेलि : कांतिविजय
१३. नेमराजुल वेलि : चतुर विजय
१४. विक्रम वेलि : मतिसुन्दर
१५. नेमि वर स्नेह वेलि : उत्तम विजय
हिन्दी भक्ति साहित्य की वेलियां-
१. दुखहरण वेलि : सवाई प्रतापसिंह
२. कृश्ण गिरिपूजन वेलि : हित वृन्दावनदास
३. हित रूपचरित वेलि : हित वृन्दावनदास
४. आनन्दवर्द्धन वेलि : हित वृन्दावनदास
५. राधाजन्म उत्सव वेलि : हित वृन्दावनदास
६. भक्त सुजस वेलि : हित वृन्दावनदास
७. करुणा वेलि : हित वृन्दावनदास
८. हरिकला वेलि : हित वृन्दावनदास
९. वेलि : हित वृन्दावनदास
लौकिक वेलियां-
१. रामदेवजी री वेल : संत हरजी भाटी
२. रूपांदे री वेल : संत हरजी भाटी
३. तालांदे री वेल : संत हरजी भाटी
४. रत्नादे री वेल : तेजो
५. पीर गुमानसिंघजी री वेल
उपर्युक्त चारों प्रकार की वेलियों के निरीक्षण से पता चलता है की सभी चारणी वेलियां 'वेलियो साणोर` नामक विि ाश्ट डिंगल छंद में लिखी गई हैं, जबकि जैन, भक्ति और लौकिक वेलियां विभिन्न छंदों में। चारणेतर किसी भी वर्ग की सब वेलियां किसी वि ोश छंद मंे नहीं लिखी गई है। इससे स्पश्ट है कि उन वर्गों की वेलियों के नामकरण का उनके छंदों से कोई संबंध नहीं है। चारणी और चारणेतर वेलियों के इस मूल अंतर को देखते हुए यह भी स्पश्ट हो जाना चाहिए कि इन सभी वेलियों को एक सूची में रखना नितांत अनुपयुक्त है। जहां चारणेतर वेलियां चारणी वेलियों से मेल नहीं खाती वहीं वे परस्पर भी किसी प्रकार का मेल नहीं खाती।
पर, चूंकि इन सभी रचनाओं को लेखकों ने 'वेलि` नाम से अभिहित किया है इसलिए दूसरा उपाय विशयवस्तुगत साम्य ढूंढ़ने का ही है। यह माना हुआ सिद्धांत है कि अधिकां ा भारतीय भाशाओं की रचनायें मूल रूप में संस्कृत साहित्य की विभिन्न विधाओं से प्रभावित रही हैं। संस्कृत में लता, लतिका, वल्लरी, कल्पलता, मंजरी, लहरी आदि नामों वाली रचनाओं की परम्परा रही है। यही परम्परा दे ाी भाशाओं में भी आई जिसके फलस्वरूप हिन्दी, राजस्थानी आदि भाशाओं में भी इन नामों से रचनायें हुईं। वल्लरी, लता, लतिका, वेलि और बेल - ये सब एक ही भाब्द के पर्याय समझे जाने चाहिए। ज्यों-ज्यों दे ाी भाशाओं का प्रभाव बढ़ता गया संस्कृत भाब्दों के स्थान पर दे ाी भाब्दांे का प्रयोग भी बढ़ता गया। इसलिए 'लता` और 'वल्लरी` के स्थान पर धीरे-धीरे 'वेलि` और फिर 'वेल` का प्रयोग भाुरू हुआ। 'वेलि`, 'लता` या 'वल्लरी` नामक रचनाओं के वि लेशण से एक तथ्य सामने आता है कि ये सभी मूल रूप में य ाोगान संबंधी रचनायें हैं। आराध्यदेव, आश्रयदाता, विि ाश्ट सुचरित्र व्यक्ति अथावा कल्याणकारी विशय- इनमें से चाहे किसी को भी लक्ष्य कर वेलि रचना की गई हो उसकी अन्तर्भूत मनसा उस देव, व्यक्ति अथवा विशय का य ा-वर्णन करने की ही होगी। कहीं भी यह नहीं देखा गया कि किसी की निन्दा अथवा कोरे तथ्यवर्णन को वेलि का विशय बनाया गया हो। इस तथ्य से यह निश्कर्श निकाला जा सकता है कि वेलि रचनायें प्रधानत: य ाोगान के उद्े य से लिखी जाती थीं। पर, इनका नाम वेलि ही क्यों रखा गया यह भी विचारणीय है। बेल मे जैसे एक बीज प्रस्पुटित होकर भात ा: पल्लवित और पुश्पित होता हुआ, चारों दि ााओं में छा जाता है, उसी प्रकार कवि के आराध्य देव, मानव या विशय की कीर्ति उसके गायन से सर्वत्र व्याप्त हो जाये - यही भावना इस नामकरण के मूल में समझी जानी चाहिए।

बंसरी

अंक पहलो
द्रिस्य पहलो

(श्रीमती बंसरी बिलायती विस्वविद्यालय सूं पास हुयोड़ी छोरी है। सोवणी न होणै पर भी उण रो काम धिक सकै। उण रै सुभाव में बिजळी री सी तेजी अर चहरै में साण-चढ़्योड़ै फौलाद री सी चमचमाट है। छितीस साहित्यिक है। चहरै मंे तो खोट है पण कहाणियां लिखणै में नामी है। पार्टी जमी है सुसमा रै बगीचै में।)
बंसरी - छितीस, साहित में थानै 'नई फैसन रो धूमकेतू` कयो जा सकै। साहित रै आकास में थे बळती पूंछ रै झपेटां सूं जूना कायदा झाड़ता जा रया हो। आज जठै थानै लाई हूं बठै बिलायती बंगाली घणा है। ओ फैसनेबलां रो बास है। अठै रा रस्ता अर गळी-कूचा थारा जाण्योड़ा नीं है। इण सूं ही थोड़ी पैली ले आई। इतै कठै थोड़ी आड़ में बैठ्या रहो। सगळा आ जावै जद थारी महिमा चोड़ै करियो। अब मैं जाऊं, हो सकै न भी आऊं।
छितीस - थोड़ा ठहरो, समझाती तो जावो, इसी जगां, मनैं क्यूं ले आया थे?
बंसरी - तो साफ-साफ कहद्यूं। थे बजार में नाम कर्यो है पोथियां लिख`र। मैं और भी आस करी ही। मैं सोची ही`क थे थारै नांव नै बजार सूं इत्तो ऊंचो उठा देस्यो`क निचला लोग थानैं गाळ काढ़णी सरू कर देसी।
छितीस - म्हारो नांव बजार मं चालू घस्योड़ो पीसो कोनी - आ बात थे कोनी मानो कांईं?
बंसरी - साहित रै सद बजार री बात नीं हो री है। थे लोग जिके नये बजार रै चालू भाव में व्योपार चलावो हो वो भी तो एक बजार है। उण रै बारै निकळणै री थारै में हिम्मत कोनी- डर लागै जाणै कठै माल री सान नीं मारी जावै। अबकै थारी 'बेमेळ` नांव री नई पोथी में इण बात रो ही सबूत मिल्यो है। पढ़णहाळा नै सस्तै में ही भुळावण री लोभ थारै में घणो है। निचलै दरजै रा लेखक इण लोभ में ही मार्या जावै। थारी इण पोथी नैं मैं तो आज रो नयो 'तोता-मैना` ही कहस्यूं। घटिया आधुनिकता रै सिवा उण में और क्यूं भी तो नीं।
छितीस - थोड़ी झाळ आगी दीखै? असल में थां लोगां री फैसनेबल पोसाक में बरछो गड़ग्यो।
बंसरी - हूं: उण नैं बरछो कैवो! बो तो रामलीला हाळां रो गत्तै रो बरछो है जिकै रै रांगो पोत्योड़ो है। उण सूं भुळै जिका उल्लू है।
छितीस - चोखो, मानग्या पण मनैं अठै क्यूं ले आया?
बंसरी - थे टेबलां बजा-बजा`र बजाणै रो अभ्यास करो हो, जठै साचला बाजा मिलै है बठै थानैं सिखाण नैं ल्याई हूं। इण लोगां सूं थे अळगा रैवो हो, ईर्स्या करो अर बणा-बणा`र गाळ्यां काढ़ो हो। थारी पोथी में नालिनाक्ष रै नांव सूं जिको दळ रच कर थे मारी हांसी उडवाई है, उण दळ री लोगां नैं थे साचाणी जाणो भी हो काईं?
छितीस - कचेड़ी में गवाही दे सकूं जिसो तो नीं जाणूं पण बणा`र कहणै लायक जरूर जाणूं।
बंसरी - भला आदम्यां, बणा`र कहणै खातर तो कचेड़ी रै गवाह सूं भी घणो बेसी जाणणै री जरूरत है। कालेज में पढ़ता हा जद सीख्यो हो - 'रसात्मक वाक्यं काव्यं- रसपूरण वाक्य ही काव्य है`, इब मोट्यार जवान होग्या हो, फेर भी उण अधूरी बात नैं पूरी करकै नीं समझ सक्या, के - 'साचा वाक्य ही जद रसपूरण होवै तो साहित कहीजै।`
छितीस - टाबरां री सी रुची खातर रस जुटाणो मेरो धन्धो कोनी। मैं आयो हूं जीरण नै चूर-चूर करै साफ कर देणै खातर।
बंसरी - ओफ्-हो! चोखी बात है, कलम नैं जे बुहारी ही बणाणी चाहो, तो कूड़े रा ढिगला भी साचा होण चाये अर बुहारी भी; अर सागै-सागै बुहारी थामणियां हाथ भी। म्हे ही लोग हां थारै नालिनाक्ष रै दळहारा, म्हारा कसूर मोकळा है, अर थां लोगां रा भी थोड़ा कोनी। मैं कसूर मात्र करणै खातर नीं कह री हूं, चोखी तरियां जाणकारी करणै खातर कह री हूं, साची बात बताणै खातर कह री हूं; फर बा चाहे चोखी लागो भांवै बुरी, - उण सूं क्यूं बणै-बिगड़ै कोनी।
छितीस - कम सूं कम थानैं तो जाण ही ली, बंसरी! किसो`क लागै इण री पिछाण भी सायद कनखियां सूं थोड़ी-थोड़ी मिल जावै।
बंसरी - देखो, साहितकारजी, म्हारै दळ में भी मेळ-बेमेळ रै तोल रो एक कांटो है। चासणी मिला`र बातां नै चिपचिपी कर देणै री रीत अठै कोनी। उण सूं तो घिरणा होवै अर जी मिचळावै। सुणो, छितीस, मैं थानैं फेर एक बार साफ-साफ बता देवंू।
छितीस - थारी बातां तो इतणी घणी साफ होवै कै समझ में आवै जिकै सूं बेसी चुभै।
बंसरी - चुभण द्यो, सुणो। अस्वत्थामा री बात पढ़ी होसी ना टाबरां री, भागवान रै टाबर नैं दूध पीतां देख जद वो रोणो सुरू कर्यो तो उण नैं पिस्योड़ा चावळां रो धोवण पिवा दियो हो, अर पीतां ही वो दूध पीणै रै मोद में दोनूं हाथ ऊंचा कर`र नाचै लागो हो।
छितीस - समझग्यो। अब जादा कहणै री जरूरत कोनी। मतलब यो के मैं म्हारी रचनावां मंे पढ़णहाळां नैं टाबरां री ज्यूं 'चावळां रो धोवण` पिवा`र नचा र्यो हूं।
बंसरी - थारी रचनावां बणावटी है, पोथ्यां पढ़-पढ़`र लिख्योड़ी। जिका आप रै जीवण मंे 'साच` नैं पिछाण्यो है उणां नैं थारी रचनावां मंे कोई स्वाद को आवै नीं।
छितीस - थे पिछाण्यो है 'साच` नैं?
बंसरी - हां, पिछाण्यो है। पण दुख तो यो है के लिखणो कोनी आवै। अर उण सूं बड़ो दुख भी है कै थानैं लिखणो आवै पण 'सच` नैं थे जाबक ही नीं पिछाण पाया। मैं आ चाहूं के थे भी मेरी तरियां खुलासा जाणणो सीखो, अर साचो लिखणो सीखो। फेर देखो! यूं मालूम देसी जाणै थारा प्राण अर मन थारी कलम में मूंडै बोलण लागग्या होवै।
छितीस - जागणै री बात तो थे कह दी, पण या बताओ के जागणै रो तरीको कांई है?
बंसरी - तरीको सीखणो आज री इण पारटी सूं ही सरू कर द्यो। अठै री इण दुनियां सूं थे इतणा दूर हो के जठै बैठ कर निरलिप्त होकर सो क्यूं देख्यो जा सकै।
छितीस - अच्छा, थे इण पारटी री बात तो थोड़ी समझाद्यो, सूक्षम में।
बंसरी - तो सुणो, एक कानी तो इण घर री लड़की है जिकी रो नांव है सुसमा। सारा मरदां रो मत है के सुसमा रै लायक जोड़ी संसार में कोई नीं, खुद उण रै टाळ। ऊधमी जवानां में कदे-कदे इसी बायां चढ़ाण रो ढंग देखणै में आवै के जे कानून री कचेड़ियां न होती तो बै खून-खराबी कर गेरता। दूजै कानी है संभूगढ़ रो राजा सोमसंकर। लुगायां उण रै बारै में कांई-कांई कानाफूंसी करै आ तो मैं कोनी बताऊं क्यूं के मैं खुद भी लुगाई री जात ठहरी। आज री पारटी है इणां दोनुवां री सगाई री।
छितीस - दो मिनखां रा ठिकाणा तो मिल्या। दो री गिणती तो गुड़ती-गुड़ती पूंच जावै सुख-सांति री गिरस्थी में। तीन रो नांव है 'नारद` जिणरो काम है उळझाणो। उळझातो-उळझातो आखर इसो उळझा देवै के जीवण दुख देऊ नाटक बण जावै। इण में तीजो मिनख भी जरूर ही कठै हुवैलो नहीं तो साहित्यिक रै खातर लोभ री चीज ही कांई रह जावै?
बंसरी - तीजो मिनख भी है! अर हो सकै के वो ही खास-मिनख हो। लोग उण नैं पुरंदर संन्यासी कैवे। मां-बाप उण रो कांई नाम राख्यो हो इण बात रो किण नैं ही ठा नहीं। कोई तो उण नैं देख्यो है कुम्भ रै मेळै में, अर कोई देख्यो है गारो रै डूंगरा में भालू रो सिकार करतां। कोई कैवे के वो यूरोप में घणां दिन हो। सुसमा नैं वो आपरी मनस्यां सूं कालेज में पढ़ाई है। आखर मे हो गयो ओ संबंध। सुसमा री मां कैवे, 'ब्रह्म समाज में किणी सूं संबंध होणो चाहिजे` पण सुसमा जिद पकड़ बैठी - 'पुरंदर रै टाळ और किणी सूं नहीं हो सकै।` चारूंमेर री हवा री बात जे पूछो तो मैं केस्यूं के कठैई दबाव जरूर पड़्यो है। कुछ आंधी जिसी बात है, बादळ कठै न कठै अणहूंता बरस्या है। बस ओर नहीं।
छितीस - अरै देखो तो सही म्हारी अरंडी में ओ स्याही रो दाग कठै सं लाग गयो।
बंसरी - इसी उतावळ क्यूं करो हो! स्याही रै इण दाग में ही तो थारी खासियत है। थे वास्तव-वादी हो। निर्मळता थानैं सोभा नहीं देवै। थे तो मसीध्वज हो। बै देखो अनसूया अर प्रियंबदा इनैं ही आवै।
छितीस - इण रो मतलब?
बंसरी - दोनूं सखियां है। एक-दूजै सूं कदे ही न्यारी नहीं हुवै। सखीपणै री उपाधि रै इम्तिहान में इणां नै अै नांव मिल्या है। असली नांवां नैं तो लोग भूल ही गया।
(दोनूं चल्या जावै)

(दोनूं सखियां आवे)
पहली सखी - आज सुसमा री सगाई है, सोचूं तो कियां ही लागै।
दूजी सखी - सगाई सूं सगळी छोरियां रो मन खराब हो ज्यावै।
पहली सखी - क्यूं?
दूजी सखी - यूं लागै जाणै डोरड़ी पै चालती हो, सुख-दुख रै बीच में थर-थर कांपती हो। मुंह कानी देखतां ही कयां ही डर लागै।
पहली सखी - बात तो साची है। आज यूं लागै जाणै नाटक रै पहलै अंक रो पड़तो उठग्यो है। नायक-नायिका भी बिसा ही है, खुद नाटककार आपकै हाथां सूं सजा`र मंच पर भेज्या है। राजा सोमसंकर देखणै में इसो लागै जाणै टॉड रै लिख्ये 'राजस्थान` सूं निकळ`र दो-तीन सौ बरस पार करकै आयो होवै।
दूजी सखी - देख्यो नहीं, जिण दिन राजा साहब पैल पोत पधार्या हा, ठेठ बिचलै जुग री सकल-सूरत ही, गैल नै लटकता लांबा-लांबा घुंघराळा बाळ, कानां में बीरबली, हाथां में मोटी-मोटी चूड़, माथै पे चंदण रो तिलक अर अटपटी बोली, गंवारू उच्चारण। आ पड़्यो बिचारी बंसरी रै हाथां में अर होग्यो उण रो नयो संस्करण। देखतां-देखतां जियां कायापलट होयो उण सूं यो संदेह भी नही र्यो के बंसरी रै वंस मंे उण रो गोत्र भ्ज्ञी मिल ज्यावैलो। उण रै बाप प्रभुसंकर नैं बेरो पड़तां ही वो झट इण रै पंजै सूं छुड़ा ले गयो।
पहली सखी - पण बो पुरंदर संन्यासी बंसरी सूं भी बड़ो उस्ताद है। सगळी भीतां कूद कर वो राजा रै छोरै नै ब्रह्म समाज री इण बींटी-बदळ-सभ मंे फेर खींच ल्यायो। सगळां सूं मुसकिल ही खुद बंसरी री भींत जिकी नैं भी बो लांघ गयो।
(सुसमा री विधवा मां विभासिनी आवै)
(बैसाख रै दिनां में नदी रो पाणी सूख`र बीच में कठै-कठै बेळका निकळ आवै बिसो ही उणरो चेहरो है। ढीली-ढाली फैल्योड़ी देह है। कठै-कठै भरवां डील है, फेर भी जोबन र धार रो बच्यो-खुच्यो अंस दब्यो नहीं है।)
विभासिनी - कांई बातां करो हो थे बैठी-बैठी दोनूं?
पहली सखी - मांवसी, सगळां रो आणै रो बखत होग्यो पण सुसमा कठै है?
विभासिनी - कांई बेरो, सायद सजधज रही होसी। थे तो चालो बेटी चाय री टेबलां कनैं, पावणां नैं खुवाओ-प्यावो।
पहली सखी - जावूं मावसी, पण बठै अभी तावड़ो है।
विभासिनी - मैं भी जावूं देखूं, देखां सुसमा कांई करै है। थे तो अठै कोनी देखी उण नैं?
दूजी सखी - नहीं, मांवसी।
विभासिनी - कोई तो कैवे हो कै बा तळाब रै किनारै आई ही।
पहली सखी - नहीं तो म्हे तो दोनूं अठै ही घूमै ही।
(विभासिनी चली जावै)
दूजी सखी - अे, परणै तो देख, बिचारो सुधांसु कयां पच र्यो है। आपरी गांठ सूं फूल मोल ल्यायो है अर हाथां सूं टेबल सजा र्यो है। काल एक कांड होग्यो जिको सुण्यो? नेपू मुंह बणा`र कयो, 'सुसमा रिपियां रै लोभ में एक जंगळी राजा सूं ब्याह कर री है।`
पहली सखी - नेपूं! उण लाई रो मुंह तो बण ही सी उण री छाती में तो सेल गड़ग्या है। सुसमा खातर जवानां री छातियां में लंकादहन हो र्यो है। अर खासकर सुधांसु री छाती तो जंगी जहाज रो बॉयलर हो री है।
दूजी सखी - क्यूं भी कैवो, सुधांसु मैं तेज है। ज्यूं ही बो नेपू री बात सुणी तो झट उण नैं धरती पर दे मार्यो अर छाती पर बैठ कर बोल्यो- 'चिट्ठी लिख`र माफी मांगणी हो सी।`
पहली सखी - अब्बल दरजै रो गंवार है। उण संू डरतो कोई पेट भर`र किणरी निन्दा भी नहीं कर पावै। भला सोचो तो सही भारत री संतान रै आ किसी`क मुसीबत है!
दूजी सखी - थानैं ठा है? म्हारै बास में हतासां री एक सभा बणगी है। लोग उण रो नांव राख्यो है, 'सुसमा भक्त संप्रदाय`। उणांरी उपाधि है, 'सोसमिक` अर खुद वै लोग आपरो नांव राख्या है, 'अभागो गुट`। झंडो भी बणायो है जिकै में टूटेड़ै छाजलै रो निसान है। सांझ होतां ही इसो रोळो माचै कि पूछो मत। गिरस्थी लोग कैवै कै असेम्बली में प्रस्ताव पास करा`र छोड़स्यां। कानून बणा`र सगळां नैं पकड़-पकड़ जीवित समाधि दिरास्यां - मतलब ब्याह करा देसां। नहीं तो सारी रात अै किणी नैं सोवण भी नहीं दे सी। यो तो पब्लिक न्यूंसेंस है।
पहली सखी - इण लोक-हित रै काम में तूं मदद कर सकसी, प्रिया?
दूजी सखी - दयारी देवी, लोकहित री भावना तो तेरै में भी किणी सूं कम नहीं। तू निरभागां रै घर मंे भाग्यवती बणन रो सोख राखै। मैं भी अन्दाजै सूं समझ लेवूं! अबु उण आदमी नैं पिछाणै?
पहली सखी - देख्यो तो कदे ही कोनी।
दूजी सखी - छितीसबाबू है। कहाणियां लिखै, बोहळो नांव है। बंसरी कीमती चीजां रा बजार भाव जाणै है। हांसी मजाक करां जद कैवै, मट्टै री मनस्या दूध सूं पूरी करूं, मोती रै बदळै सीप ही सही।
पहली सखी - चाल बाई, सगळा आग्या। दोणुवां नैं एक सागै देखसी तो हांसी घालसी।

आज रा कहाणीकार : प्रकाशकीय



साहित्यिक कहाणी अर लोककथा में जिको मूळ फरक है उण नैं राजस्थान रा जूना कहाणीकार भी घणी पहलां ओळख लियो हो। यूं तो सब भांत री कहाणियां बातां रै नांव सूं सैंकड़ां री तादाद में मांडी मिलै, पण साहित्यिक कहाणी रा तत्वां नैं समेटती कहाणियां भी घणी है। छोटा-छोटा वाक्य, क्रियावां रो प्राय: अभाव, अलंकारां सूं जड़ी सब्दावळी अर मुहावरां सूं जीवंत लखाती भासा वरणनां री सजीवता रै माथै भावां री अूंडाई में भी गोता लगाती मिलै। व्यंजना-सगती री ठाडी सामरथ वाळी कई छोटी-छोटी बातां तो आज रै बढ़्यै-चढ़्यै साहित्य में भी कमती मिलै। 'वींझरै अहीर री बात` इण रो नमूनो है। जिण में एक गांव री गोरी आपरै प्रेमी सूं अभिसार करण जावै अर भोळप में उण रै मुंह सूं 'बीरा` सब्द निकळ जावै जिण सूं सगळी मनसावां नै मारती थकी वा पाछी आ जावै। एक-दो पानां री वा छोटी बात साहित्यिक मरम में बड़ी-बड़ी बातां नैं मात करै इसी है।
जद देस री दूजी भासावां में इत्तै ऊंचै दरजै री बातां कम लिखी जाती ही, उण बखत राजस्थानी में इसी बातां मांडी जाती ही। गुन्नीसवैं सईकै रै खतम होतां-होतां अंग्रेजी अर हिंदी रै प्रवेस रै साथै राजस्थानी री साहित्यिक रचनावां हीण ओस्था में पूगण लागणी ही। पाछला डेढ़सौ बरसां री आ हीण दसा राजस्थानी रै भासा रूप नैं खतम करण रो काम कर्यो। ओ ई कारण है कै आज री राजस्थानी कहाणी नैं, दूजी विधावां रै साहित्य रै ज्यंू, आपरी जूनी लीक सूं छेड़ै नयो मारग मांडणो पड़्यो। ओ मारग राजस्थान री धरती री पिछाण राखणियां पगां सूं नीं मांडीज्यो, पण ओपरा पगां री ओपरी चालां संू बण्यो।
मिनख रो सुभाव है कै वो नकल करण रो काम जाण-अणजाण में झट सरू कर देवै। मिनख रा सगळा संस्कार, व्योहार अर रहण-सहण, खाण-पीण आद री सगळी आदतां नकल सूं ही बणै। भासा री तो जड़ ई नकल में है। बहोत थोड़ा लोग इसा हुवै जिका इण नकल सूं दूर रह`र नई बात सोचै, नयै ढंग सूं नया काम करै। वै औसत मिनखां सूं न्यारा-निरवाळा मानीजै। इण मूळ विरती नैं देखतां जे दूजी भासा अर साहित्य री नकल पर रचनावां हुवै तो काई अपरोघ्ज्ञी बात कोनी। आज री राजस्थानी रचनावां रो, खासकर हिन्दी अर थोड़ी-थोड़ी दूजी भासावां री नकल पर, लिखीजणो भी कोई नई बात नीं होणी चाईजै।
परंपरा सूं बिछड़्योड़ै आज रै राजस्थानी साहित्य री जड़ां कोई गहरी कोनी। हिन्दी भासा रै पढ़णै-पढ़ाणै री छाप राजस्थानी रचनावां मे चोड़ै दीखै। छड़्या-बीछड़्या इसा लेखक भी है जिका अंग्रेजी री रचनावां सूं प्रेरणा ले। जे और भी कोई भासा राजस्थानी पर असर गेर्यो है तो वै जरूर हिन्दी अर अंग्रेजी अनुवादां रै जरियै, क्यूंकै बहोत थोड़ा इसा लेखक हुसी जिणां नैं आं दोवां टाळ कोई तीजी भासा रो मुहावरो अर रफ्त हुवै।
असर ग्रहण करतां हुयां भी कई समरथ लेखक इसा है जिकां रा पग आपरी धरती पर टिक्या है। वां री कहाणी में आपणी धरती, आपणै बायरै अर आपणै आभै री सोरम है। वां रा पात्र आपणै समाज रा जीता-जागता मिनख है अर वां री समस्यावां आपणी आंख्यां देखी बातां है। बैजनाथ पंवार, नरसिंघ राजपुरोहित, रामे वरदयाल श्रीमाळी, अन्नाराम सुदामा, नंद भारद्वाज आद इसा ई समरथ लिखारा है जका राजस्थान री धरती रो दरद आपरी बातां में समेट्यो है।
अठै आ बात भुलाणै री नीं है कै धरती री रंगत होतां थकां भी कहाणी मांडण रो ढंग सफा ओपरो है। उण में आपणी परंपरा रो अभाव तो है ई पण आपरी निरवाळी सैली कैवावण री खिमता भी कोनी। ठेठ राजस्थानी ठाठ में बात कैवण रो जिको ढंग है, वो ज्यूं रो त्यूं तो विचारप्रधान वातां मंे नीं उतार्यो जा सकै, पण फेर भी उण री मूळ बणगट, उण रा छोटा-छोटा वाक्यां रा टुकड़ा, फालतू रा सब्दां नैं टाळणो, सार कथण री चतराई आद कई इसा गुण है जिकां नैं ग्रहण किया जा सकै। पण आज रा लिखारां में कोई जौ-बिरळो ई पुराणी बातां नैं पढ़ी होसी, पढ़`र पचाणो तो दूर री बात है।
हिन्दी में रोमांसप्रधान सीधीसाद कहाणियां रो जुग घणो पहलां चल्यो गयो हो। आज बिसी कहाणियां हळकी-फुळकी पत्रिकावां में भले ई मिलो। पण राजस्थानी में हाल लड़कै-लड़की रै प्रेम री उथळी कहाणियां मांडी जावै। इण संग्रै मंे 'खिरग्या पान`, 'अणबूझ प्हाळी`, 'आन`, 'सामली बारी` आद कहाणियां इणी ढंग री कैयी जा सकै। यूं मालूम पड़ै कै पात्रां नैं पैलां सूं ई प्रेम में भिजो`र मेल्या है। लुगाई-मोट्यार रो समर्पण कित्ती मुसकलां सूं हुवै अर इण मारग मंे कित्ती आफतां सूं निपटण सारू कित्ती साधना री जरूरत है, आ मूळ बात लिखारां रै दिमाग में कोनी आई। सस्तो प्यार टिकाऊ कोनी अर उण री कोई वकत भी कोनी।
गद्यकाव्यात्मक सैली में कहाणियां मांडण रो रिवाज भी बीत्यै जुग री बात होगी। आज रै बुद्धिप्रधान जमानै में कोरी भावना री बात मांड`र रिझाणै री कोसीस बेकार सी लखावै। भले ई थोड़ा भावुक सुभाव रा लोगां नैं इसी बात रुचै पण वां रो ताणो-बाणो मनां में उठती-गिरती विचार तरंगां सूं कमती लगाव राखै। इण संग्रै में 'सुपनो`, 'आल जंजाळ`, 'डाळ सूं छूट्या पंछी`, 'दीया जळै दीया बुझै` आद कहाणियां कम-बेसी भावना प्रधान है। दामोदरप्रसाद अर सोभागसिंघ री बातां भी रजपूती आन-बान री भावनात्मक बात सैली री रचनावां है। 'आळ जंजाळ` में ब्रजमोहन जावळिया पन्ना धाय रै मनोवेगां नैं दरसाणै री चेश्टा करी है पण गद्य री पद्यात्मक सैली उण में बाधा देती दीखै।
निरी भावनाप्रधान होणै पर भी किसोर कल्पनाकांत री 'गीतां रो बावळियो` एक बेजोड़ रचना कैयी जाणी चाईजै। उण में जिकी समरसता, एकतानता अर मूळ तत्त्व रो निर्वाह ठेठ ताणी खूबी सूं कर्यो है वा बिरळी ई मिलै। एक कवि रै जीवण रो प्रसंग हुवण सूं कहाणी अणहोणी भी कोनी दीखै। भासा रो प्रयोग भी विसय सूं मेळ खातो है। यूं, या कहाणी सांगोपांग रूप सूं सफल कहाणी है।
नई कविता री देखादेखी कई लिखारा नई कहाणी भी लिखणै री चेस्टा करी है। इणां में चमत्कार दिखावण री मनस्या अूंडी बैठी लखावै। कहाणी रा मूळ तत्त्व ई गायब है। सगळी बात एक चुटकलो सी, बसेी करो तो एक सूक्ति सी या एक भागतै चितराम सी मालूम पड़ै। 'कि अर की`, इसो ई प्रयास है। रचना सैली रो नयोपणो जद ई मन नैं रुचै जद कैयी गई बात में दम हुवै।
कई लिखारा थरप्योड़ा मोलां अर जूनां संस्कारां री खिलाफत में ई सार समझै। यूं करणो वै जस कमावण रो सरळ मारग मानै। यादवेन्द्र की कहाणी 'बाप अर बेटो` में एक ई लड़की सूं बाप अर बेटो प्रेम करै। इसी घटणावां कित्ती हुवै, किसै समाज में हुवै अर यां रो कांईं असर पड़ै- अै सगळी बाता लिखारै नैं सोचणी चाईजै।
एक और रचना-सिल्प है लोककथा रो। उण री सुखांत भावना पैलां सूं ई पाठक नैं मन री उण हालत में मेल देवै अर कठै ई विचारां नैं तकलीफ कोनी करणी पड़ै। उस्ताद गणेसीलाल री 'डोकरी री का`णी` मूळ रूप में लोककथा है। उस्ताद में ऊंची उडाण री चीजां लिखणै री भी खिमता ही, पण वै जिंदगी सूं जूझणै में लाग्या रैया अर कहाणी वांनै पकड़ नीं सकी।
भासा रा समरथ कई लिखारा है जिका थोड़ी खेचळ करै, संसार रै कथा साहित्य नैं पढ़ै-गुणै तो वै साच्याणी अूंचै दरजै री कहाणियां लिख सकै।
एक बड़ी बात आ है कै लिखारा वा ई बात लिखै तो ठीक जिकी नैं वै खुद भुगती है या जिण रै बीच वै दिनरात बिताई है। इण भांत राजस्थानी रा लिखारा, जिका घणखरा मध्यवित्त परिवारां रा है, आप री आपबीती सी लिखै तो ज्यादा सफळ हुवै। चला`र कोई विसय अर वातावरण नैं ओढ़णै री चेस्टा सूं न्याय नीं कर्यो जा सकै। ओ ई कारण है कै जिका लिखारा ठेठ गांवां रा रैवासी है, वै ई गांव री कहाणियां चोखी मांड पाया है। डॉ. मनोहर भार्मा खुद मध्यवित्त परिवार रा है। वै जिकी कहाणी 'करड़ी आंच` मांडी है उण रो मरम वो ई समझ सकै जिको सेखावाटी रै उण समाज में रैयो है जिण में बाणियां रो प्रभुत्व है अर बाकी घणखरा वां री क्रिया या वांरै सहारै पर जीवणियां है, खास तौर सूं बामणां रा परिवार। 'करड़ी आंच` रो वातावरण लिखारै रै जीवण में रम्योड़ो है अर इण सूं ई गहरो असर करै।
आज लूंठा सहारां रा होटलां री, गुंडा-बदमासां-डाकुवां री या और भी इणी भांत रा विसयां री कहाणियां मांंडणियां लिखारा उण जिंदगी नैं नीं तो खुद जीयी है अर नीं उण नैं नैड़ै सूं देखी है। इसी कहाणियां लिखणै री बजाय वै आप री भुगती या देखी-पिछाणी जिंदगी नैं मांडै तो सायद बेसी ठीक रैवै।
राजस्थानी कहाणियां रो ओ लेखो-जोखो मौटै रूप मे तो सही ई है, हां, बारीक छाणबीण सूं इसा तत्त्व निकाळ्या जा सकै जिका सूं आज री कहाणियां रो सही मोल-तोल कर्यो जा सकै।
इण संग्रै बाबत दो आंक मांडतां आ बात भी समझाणी ही कै रचनावां बखत-बखत पर छपी है जिण सूं कागज, छपाई अर ढंग-डोळ में फरक है। भाई श्रीमाळीजी कहाणियां बाबत आपरा विचार विस्तार सूं मांड`र म्हारो भार हळको कर दियो जण सूं थोड़ा साई विचार आपरै सामैं राख्या है। संग्रै रै दूजै भाग में सेस लिखारां री रचनावां छापणी है। कई नामी लिखारां री रचनावां भी इण में कारणवस भेळी नीं करी जा सकी। दूजै भाग में ई समूचै कहाणी साहित्य पर विस्तार सूं चरचार करी जासी।
(रावत सारस्वत, जयपुर, आखातीज-२०३३)

दस्तावेज



राजस्थानी गद्य रो रूप निर्धारण
(विद्वानां री एक विचार गोश्ठी रा निर्णय)

१८-२० मार्च, १९६६ नै जयपुर मंे राजस्थान भाशा प्रचार सभा आधुनिक राजस्थानी गद्य रै सर्वमान्य रूप निर्धारण री समस्या पर विचार करणै अर निर्णय लेवण सारू राजस्थानी रा जाण्या मान्यां विद्वानां री एक गोश्ठी बुलाई।
गद्य री समस्यावां बाबत एक परिपत्र गोश्ठी सूं पैलां राजस्थानी रा प्राय सगळाई लेखकां नै भेज्यो हो अर वां रा विचार अर सुझाव मांग्या हा। कई संस्थावां भी आप रा सुझाव भेज्या हा। गोश्ठी में पधारर विचार करणै अर निर्णय में मदद देवणआळा विद्वानां रा नाम नीचै मुजब है-
१. रेवतदान चारण, कवि
२. हरीन्द्र चौधरी, पत्रकार
३. प्रो. मदनगोपाल भार्मा, कवि
४. डॉ. मनोहर भार्मा, लेखक
५. सीताराम लाळस, कोशकार
६. कोमल कोठारी, आलोचक
७. लाल कवि, कवि
८. श्रीलाल नथमल जो ाी, लेखक
९. परमे वर सोळंकी, पुरातत्वज्ञ
१०. सौभाग्यसिंह भोखावत, भाोध विद्वान
११. प्रो. प्रेमचन्द विजयवर्गीय, व्याख्याता
१२. श्रीलाल मिश्र, आलोचक
१३. उमरावसिंह मंगळ, प्रका ाक
१४. देवीलाल पालीवाल, भाोध विद्वान
१५. सत्यनारायण प्रभाकर, कवि
१६. हणूंतसिंह देवड़ा, कवि
१७. प्रल्हादराय व्यास, लेखक
१८. प्रो. भांभूसिंह मनोहर, भाोध विद्वान
१९. डॉ. हीरालाल माहे वरी, भाोध विद्वान
२०. बुद्धिप्रका ा पारीक, कवि
२१. रामवल्लभ सोमाणी, भाोध विद्वान
२२. नरोत्तमदास स्वामी, भाशा भाास्त्री
२३. मंगळ सक्सेना, अकादमी सचिव
२४. सुमने ा जो ाी, पत्रकार-कवि
२५. चंद्रसिंह, कवि-लेखक
२६. मूळजी व्यास, भाशा-प्रतिनिधि
२७. मूळचंद जौहरी, भाशा प्रतिनिधि
२८. लक्ष्मीकुमारी चूंडावत, लेखिका
२९. मुरलीधर व्यास, लेखक
३०. भांकर पारीक, लेखक
३१. सवाईसिंह धमोरा, लेखक
३२. रेवा ांकर, पत्रकार
३३. डॉ. नरेन्द्र भानावत, लेखक
३४. मूळचंद सेठिया, आलोचक
३५. रामनिवास भााह, आलोचक
३६. हिम्मतलाल हिमकर नेगी, आलोचक
३७. सीताराम पारीक, आलोचक
३८. मनोहर प्रभाकर, कवि
३९. कल्याणसिंह राजावत, कवि
४०. रामकृश्ण बोहरा, पत्रकार
४१. रावत सारस्वत
इणां रे अलावा नीचै लिख्या विद्वान भी समै-समै पर आया अर गोश्ठी में भाग लियो-
१. जनार्दनराय नागर, भूतपूर्व अध्यक्ष, साहित्य अकादमी
२. प्रो. विद्याधर भाास्त्री, संस्कृत विद्वान
३. गिरी ाजी पाण्डेय, हिन्दी लेखक
४. वेदव्यास, राजस्थानी कवि
५. नेमीचंद श्रीमाल, भाोध विद्वान
६. डॉ. सरनामसिंह भार्मा, रीडर, राजस्थान वि वविद्यालय
७. ओंकारसिंह, आई.ए.एस.
८. कन्हैयालाल
९. कामतागुप्त कमले ा
ऊपर लिख्या विद्वानां रै अलावा आज री गोश्ठी में वि वविद्यालय, आका ावाणी अर दूजा अनेक क्षेत्रां रा लोग काफी बड़ी तादाद में हा।
गोश्ठी रो उद्घाटन साहित्य अकादमी रा अध्यक्ष श्री हरिभाऊ उपाध्याय कर्यो। गोश्ठियां री अध्यक्षता मोटा भाशा भाास्त्री अर राजस्थानी रा सगळां सूं सिरै विद्वान री नरोत्तमदासजी स्वामी करी। गोश्ठियां रो संयोजन नामी पत्रकार अर कवि श्री सुमने ा जो ाी कर्यो। इण मोकै पर राजस्थानी पोथियां री एक प्रदर्सणी भी लगाई गई जिण रो उद्घाटन भी हरिभाऊ कर्यो। श्री सीताराम लाळस, श्री मनोहर भार्मा अर श्री मुरलीधर व्यास गोश्ठियां में विसेस अतिथि रै रूप में सम्मानित कर्या गया।
गोश्ठी रा संयोजक सुमने ा जो ाी आप रै प्रारंभिक भाशण में या बात कैयी कै राजस्थान राजस्थानी भाशी प्रांत है। हिन्दी इण प्रांत री मातृभाशा कोनी। सरकारी आंकड़ां रो हवालो देता हुयां जो ाीजी बतायो कै राजस्थान री ढाई करोड़ री आबादी में सूं खाली ३३ लाख आदमी हिन्दी बोलै जद कै दो करोड़ सूं बेसी लोगां री मातृभाशा राजस्थानी है। जो ाीजी या बात भी बताई कै राजस्थान सदा संू हिन्दी नै राश्ट्रभाशा रै रूप में मानतो अर आदर देतो आयो है, पण इण कारण उण नै हिन्दीभाशी मान लेणो सरासर अन्याय है।
श्री हरिभाऊजी उपाध्याय आप रै भाशण में कैयो कै राजस्थानी एक समर्थ भाशा है अर या बात जरूरी है कै उण नै राजस्थान री मातृभाशा रै रूप में मानता दी जावै। साथै ई या बात भी जरूरी है कै राजस्थानी में जे कोई अपूर्णता रैयी हुवै तो उण नै भी पूरी करी जावै। राजस्थानी गद्य रै रूप निर्धारण सारू भेळा हुयोड़ा विद्वानां नै लक्ष्य करता उपाध्यायजी कैयो कै वै आपरा विचारां रै आदान-प्रदान सूं राजस्थानी नै समर्थ बणासी, यो विसवास कर्यो जा सकै। प्राचीन भाोध अर संग्रह री जरूरत मानतां हुयां वै या बात कैयी कै प्रचार-प्रकासण वां रो ई हुवणो चाईजै जिकी जमानै रै गैल लोक-सुहाती लागै अर समाज नै आगै बढ़ावै।
गोश्ठी रा अध्यक्ष श्री नरोत्तमदासजी स्वामी इण बात पर दुख प्रगट कर्यो कै राजस्थानी नै संविधान में मान्यता कोनी मिली। एक रहस्य री बात बतातां हुयां श्री स्वामीजी या बात कैयी कै उण बखत श्री कन्हैयालाल माणकलाल मुं ाी इण काम में अगवा हा अर वै राजस्थान अर गुजरात नै एक करर राजस्थान पर गुजराती थोपणै रा सुपना देखता हा, जिकै सूं राजस्थानी री पुकार सुणी कोनी गई। राजस्थानी री आज री हालत री तुलना सौ बरसां पैलां री हिन्दी सूं करतां बगत स्वामीजी कैयो कै आज री राजस्थानी उण बगत री हिन्दी सूं कित्ती ई जादा समर्थ अर प्राणवान है। लोगां नै प्रेरणा देतां हुयां स्वामीजी राजस्थानी खातर कमर कसणै, जतन करणै अर एकजुट हुयर निर्णय लेवण अर बांनै काम में ढाळणै री जरूरत पर जोर दियो।
राजस्थानी में लगातार साहित्य निर्माण री बात पर बळ देता वे कैयो कै हिन्दी म्हारी राश्ट्रभाशा है, पण इण रो यो मतलब कोनी कै राजस्थानी म्हारी मातृभाशा कोनी। हिन्दी नै जे दूजी प्रांतीय भाशावां सूं कोई खतरो कोनी तो फेर राजस्थानी सूं खतरो कियां हो सकै।
आज री बैठक में प्रो. मदनगोपाल भार्मा 'राजस्थानी गद्य री एकरूपता` पर आप रो निबंध पढ़्यो।
दिनांक १९ अर २० मार्च नै नीचै मुजब निबंध पढ़्या गया-
१. हिन्दी साहित्य रै संदर्भ में राजस्थानी साहित्य री देण अर विसेसतावां - डा. हीरालाल माहे वरी
२. राजस्थानी गद्य री एकरूपता अर आधुनिक राजस्थानी काव्य भाशा - डा. हीरालाल माहे वरी
३. हिन्दी रै वर्तमान स्वरूप मंे न्यारै राजस्थानी रै गद्य रो औचित्य - डा. नेमीचंद श्रीमाळ
४. हिन्दी अर राजस्थानी - डा. सरनामसिंह भार्मा
५. ि ालालेखां में प्रयुक्त राजस्थानी भाशा - आचार्य परमे वर सोळंकी
६. मातृभाशा अर अभिव्यक्ति रो माध्यम - मनोहर प्रभाकर
लक्ष्मीकुमारी चूंडावत अर हणंूतसिंह देवड़ा भी लिखित रूप में आपरा विचार पढ़र सुणाया।
विद्याधरजी भाास्त्री या बात कैयी कै प्रांत री सभ्यता रै विकास खातर प्रांत री एक भाशा होणी जरूरी है। इसी भाशा रो स्वरूप स्थायी अर उण री सब्दावळी निि चत रेणी चाईजै।
स्वामीजी बोल्या कै यो राजस्थानी रो संक्रांतिकाल है। इसै बगत मंे कठणाई हुवै ई हैै। पण अठै लियोड़ा निर्णयां नै काम में लेर आपां नै आगै बढ़णो चाईजै। आपां रो हिन्दी सूं कोई विरोध कोनी, पण मातृभाशा राजस्थानी सारू भी आपणो घणो मोटो फरज है।
जनार्दनराय नागर कैयो कै म्हे लोग राजस्थानी नै राजस्थान री मातृभाशा मानां अर हिन्दी नै राश्ट्रभाशा। जिका लोग या बात कैवे के राजस्थानी री बढ़ोतरी सूं हिन्दी री हाण हुवै, बै बेईमान है। इण प्रसंग में नागरजी अर दूजा विद्वानां दो प्रस्ताव त्यार कर्या जिका नीचै मुजब हा। अ प्र्रस्ताव गोश्ठी में घणै हरख-उछाह सूं मान्या गया।

प्रस्ताव-१
राजस्थानी भाशा अर साहित्य रै इण उपनिशद् रै मोकै पर भेळा हुयोड़ा राजस्थान रा साहित्यकारां अर विद्वानां रो यो पक्को मत है कै राजस्थान प्रदे ा री स्वाभाविक मातृभाशा राजस्थानी है। भारतीय भाशावां रै ऐतिहासिक काळक्रम अर भारतीय भाशा विज्ञान रै सिद्ध निश्कर्शां रै आधार पर राजस्थान प्रदे ा मातृभाशा री द्रिश्टि सूं हिन्दी भाशी क्षेत्र कोनी। राजस्थानी भाशा अर साहित्य में जण-जीवण रै व्यवहार री धारावाही परंपरा अपभ्रं ा काळ सूं ई अविछिन्न रूप सूं चालती आई है। इण वास्तै उपनिशद् रै मोकै पर भेळा हुयोड़ा राजस्थान रा साहित्यकारां अर विद्वानां रो यो फैसलो है कै राजस्थान री दो-ढ़ाई करोड़ लोगां री स्वाभाविक मातृभाशा नै प्रदे ा अर राश्ट्र रै स्तर पर पक्कायत मानता मिलणी चाईजै। इण वास्तै यो निर्णय कर्यो जावै है कै राजस्थानी री बोलियां रो उदारता सूं विकास करता हुयां राजस्थानी भाशा रै रूप रो विकास कर्यो जावै अर राजस्थानी भाशा री मानता री समस्या नै सारै राजस्थान में चेतना पैदा करता हुयां सुळझाई जावै।
प्रस्तावक - जनार्दनराय नागर
समर्थक - सुमने ा जो ाी

प्रस्ताव-२
राजस्थानी भाशा अर साहित्य रो यो उपनिशद् राजस्थान साहित्य अकादमी सूं अरज करै है कै राजस्थानी भाशा री एकरूपता रै विकास खातर अकादमी एक ऊंचै दरजै रै विकास आयोग री थापना करै। यो आयोग राजस्थानी भाशा री इतिहासी, भाशा संबंधी, साहित्य संबंधी अर समाज संबंधी - सगळी बातां नै भली भांत देखर राजस्थान प्रदे ा री अधिकृत भाशा रै रूप में राजस्थानी री प्रगति संभव हो सकै, इण काम सारू सारा विवरण भेळा करै अर इसा रचनात्मक अर सृजनात्मक आधार सामै राखै जिणां सूं राजस्थानी बोलियां रो आपसी मेळजोळ भली भामत बैठ सकै।
प्रस्तावक - परमे वर सोळंकी
समर्थक - श्रीलाल मिश्र

१९ तारीख री गोश्ठी रो मूळ निर्णय यो रैयौ कै राजस्थानी राजस्थान री मातृभाशा है अर राश्ट्रभाशा हिन्दी सूं इण रो कोई विरोध कोनी। इण वास्तै राजस्थानी री मानता सारू सगळा लोगां नै एकठा होर जोर लगाणो चाईजै।
इण चर्चा रै बाद उपनिशद् रै मूळ विसय - गद्य री एकरूपता - पर चर्चा सरू करी गई। इण चर्चा रो संयोजन रावत सारस्वत कर्यो। चर्चावां रा निर्णय इण कारवाई रै साथै ईज छाप्या हैं।

गोश्ठी में गद्य री एकरूपता रा लिया गया कुछेक निर्णय

लिपि-
१. ए-ऐ री जगा अे-अै लिखणा। उ-ऊ री जगां अु-अू। हो सकै तो बारखड़ी री सगळी मात्रावां अ रै ही लगाई जावै, जियां- आि-आी।
२. मूर्धन्य ल नै ळ लिख्यो जावै।
३. चन्द्र बिन्दु अर बिन्दु दोनां री जगां ० लगायो जावै।
४. व अर्धस्वर रो प्रयोग नईं कर्यो जावै।
५. सानुनासिक ध्वनियां रै पैलड़ा आखरां पर बिंदी नीं लगाई जावै, जियां रांम, राजस्थांन नी लिखर, राम, राजस्थान ई लिख्यो जावै।
६. औ री जगां ओ लिख्यौ जावै, जियां- गयौ, घोड़ौ, सीधौ, औखद, मौड़ौ री जगां गयो, घोड़ो, सीधो, ओखद, मोड़ो लिखणो चाईजै।
७. अनुप्राणित उच्चारण रा सब्दां में बळ प्रयोग रो निसान नी लगायो जावै, जियां सारो- सा रो- दोनां नै सारो ई लिखणो। प्रसंग सूं अरथ साफ हो जासी।
८. जिका तत्सम सब्द देसी रूप में नी ढळ्या है, वां नै सुद्ध रूप में ई लिखणा, जियंा श्रम, विि ाश्ट, समाविश्ट आदि। इसा सब्दां नै फालतू तोड़णै री चेश्टा नी करणी, जियां सरम, समाविसट आदि। पण जिकां रा देसी रूप ढळग्य है, वां नै देसी रूप में ई लिखणा, जियां आ चर्य री जगां अचरच, द र्ान री जगां दरसण, कृश्ण री जगां क्रिसण आदि।
९. कृ री जगां क्रि रो प्रयोग करणो। इयां ई दूजी जगावां में भी करणो।
१०. आधा सानुनासिक सब्दां नै बिन्दी सूं दरसाणा, जियां कण्ठ, पन्त, कम्प नै कंठ, पंत अर कंप लिखणो।
उच्चारण री कुछेक दूजी समस्यावां-
हिन्दी - में
राजस्थानी - में, मांय-घर में कुण। घर मांय संू आयो।
हिन्दी - तू, तुमको (आपको)
राजस्थानी - तूं, तनै, थांनै, आपनै -थांनै आवणो है।
(थारी अर थांरी में थारी नीचै दरजै अर थांरी ऊंचै दरजै रो सब्द है।)
हिन्दी - सिंह, क्या
राजस्थानी - सिंघ, काईं - सिंघ म्हारो काईं करै।
हिन्दी - कन्हैया, ही
राजस्थानी - कनइयो, ई - कनइयो ई चोखो लागै।
हिन्दी - उठाकर
राजस्थानी - उठार। पोथी उठार पढ़ण लागग्यो।
हिन्दी - तरह, कि, नहीं
राजस्थानी - तरै, क, कै, नईं (नीं) - चोखी तरै जावै क नईं कैयो कै जावूं।
हिन्दी - थोड़ा सा रुपया मुझे चाहिये
राजस्थानी - थोड़ा सा (थोड़ासाक) - रुपिया मनै चाईजै।
हिन्दी - आई, आया, जाने वाला
राजस्थानी - आई, आया, जावणवाळा (जावणआळा)। आया जिका जावणाळा है।
सब्द-भेद
(वचन) छोरी, पोथी - छोर्यां, पोथ्यां। छोर्यां पोथ्यां पढ़ै।
विभक्ति -
राजा रा घोड़ा पर, किला रा माथा पर, रावळा में नी लिखर राजा रै घोड़ै पर, किलै रै माथै पर, रावळै में लिखणो। हिन्दी 'अरै` री जगां 'अरै` लिखणो।
सर्वनाम -
हिन्दी - मैं, मैंने, मेरे से, मेरा, मेरे में
राजस्थानी - हूं, म्हैं, म्हारै सूं, म्हांसू, म्हारो, म्हां में, म्हारै में
हिन्दी - तू, तुझे, तेरे से, तूने, तुझमें
राजस्थानी - तूं, तनै, थानै, तैसूं, थारै सूं, तैंमैं, थारे में
हिन्दी - आपका, आपमें, आपको
राजस्थानी - आपरो (थांरो), आप में (थां में), आप नै (थांनै)
हिन्दी - यह, ये, इस, इसने, इसको, उस, उसने, इनमें, इन्होंने
राजस्थानी - ओ (आ), अै, ई (इण), इण नै, उण (बीं), इणां में, इणां
हिन्दी - कौन, किसको, कई, जो, जिस, उस
राजस्थानी - कुण, किणनै, कई (केई), जो, जिको, जिण, तिण
क्रियाविसेसण -
हिन्दी - यहां, वहां, जहां, कहां, तहां, इधर, उधर, जिधर
राजस्थानी - अठै-बठै कांई धर्यो है? जठै-कठै मिलसी। अठी नै बैठ, बठी नै काईं मेल्यो है। जठी नै जासी, बठी नै मिलसी।
हिन्दी - अब, कब, जब, किस समय, जिस समय, अभी
राजस्थानी - अबार मत जा, अबै काईं पड़्यो है। कद अर कणै जासी? जद अर जणै ई आसूं। हणै ई काईं करूं।
हिन्दी - आगे, पीछे, बाद में, सामने, बाहर, परसों, फिर, परले दिन
राजस्थानी - आगै (अगाड़ी), पछै, सामनै, बारै, परसूं, फेर, परलै दिन, तापरलै दिन
हिन्दी - ऐसे, वैसे, कैसे, जैसे, तैसे, ज्यों-त्यों
राजस्थानी - आिंयां, बिंया, किंया, जिंया, तिंया, ज्यूं-त्यूं
क्रिया-
हिन्दी - आना, जाना, कहना, आता
राजस्थानी - आवणो, जावणो, कैवणो, आवतो
हिन्दी - करना (आज्ञा), रहूंगा, जाऊंगा, होगा, हुआ, था, थी
राजस्थानी - करजो, रहसूं (रहूंला), जासूं (जाऊंला), हुसी, हुयो, हो, ही
हिन्दी - रहा, रहता हूं, किया, है
राजस्थानी - रैयो, रैवूं हूं, कर्यो, है
वि ोशण -
हिन्दी - अधिक, ज्यादा, बहुत सब
राजस्थानी - अधिक, जादा, बौत, सै (सगळा)
हिन्दी - ऐसा, वैसा, कैसा, जैसा, जितना, उतना
राजस्थानी - आिसो, बिसो, किसो, जिसो, जित्ता, बित्ता
संयोजक -
हिन्दी - और, या, पर
राजस्थानी - अर, और नै, या, पण
विविध -
हिन्दी - दे दो, ले लो, मोहर, कहानी , महल
राजस्थानी -दे दो, ले लो, मो`र, का`णी, मै`ल (बळ प्रयोग इसा सब्दां में फिलहाल लगाणो ई तै राख्यो)
हिन्दी - क्या जाने, दूहना, चाय, पत्थर, सूखा
राजस्थानी - काईं ठा, दूवणो, चाय, पत्थर, सूका
कई सब्द गळत लिख्या जावै जिणां नै नीचै मुजब सही लिखणा -
गळत सब्द कौठे मांड्या है - कनै (खनै), आधो (आगो), खाथो (खातो), ऊंतावळ (उंतावळ), चोखो (छोको-चोको), माझळ (मांझळ), पीथल (पीथळ), पातल (पातळ), बगत (बख्त), किनारो (कनारो), निजर (नजर), आणंद (आनंद), नवी (नई), पड़नो (पड़णो), जचै (जंचै), नदी (नंदी), नदी (नद्दी), सारू (सारूं), आवतो (आंवतो), कीं (कुछ), सवाल (सुवाल), काल (कालै), मसखरी (मसकरी), सूंघै (सूंगै), साच (सांच), बो - बा (वो - वा), सूं (स्यूं), बिरछ (वरछ), भाजै (भागै), अुमर (अूमर), पकड़ (कपड़, अपड़), मस्त (मसत), रैया (रिया), मणिया (मिणिया),
ऊपर लिख्या प्रयोगां रो सैद्धांतिक विवेचन कर्यो गयो अर कुछेक निर्णय लिया गया। और भी अनेक इसी समस्यावां हैं, जिणां पर विचार कियो जाणो जरूरी मालुम पड़ै। पण जे राजस्थानी लेखक इण निर्णयां नै आपरी रचनावां में उतारणै री कोसिस करसी तो आगै री एकरूपता रा प्रयत्नां नै बळ मिलसी।


दळपत विलास : भूमिका


ई. सन् १९४२ में, जब मैं बीकानेर स्थित अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में राजस्थानी भाशा के हस्तलिखित ग्रंथों का सूचीपत्र बनाने के उद्दे य से उनकी छानबीन कर रहा था, मुझे 'दलपतविलास` नामक इस इतिहास ग्रंथ की प्रति मिली। उस समय प्राचीन राजस्थानी गद्य में मेरी रुचि अधिक थी इसलिए मैं सतरहवीं भाताब्दी के मध्यकाल में लिखित इस समसामयिक रचना की ओर आकृश्ट हुआ। पुस्तक में आये हुए एकाध रोचक प्रसंग की चर्चा को लेकर मैंने इस ग्रंथ के प्राप्त होने का उल्लेख माननीय डाक्टर द ारथ भार्मा से किया। उनकी प्रेरणा से मैंने तभी तत्कालीन सादूल प्राच्य ग्रंथमाला में प्रकाि ात करवाने के लिए संपादित करने की दृश्टि से इसकी प्रतिलिपि करवाली थी। पर अनूप संस्कृत लाइब्रेरी से मेरा संबंध-विच्छेद हो जाने के कारण यह कार्य उस समय पूरा न किया जा सका।
सन् १९५३ में जब 'मरुवाणी` मासिक पत्र का प्रका ान प्रारंभ हुआ तो मैंने इस ग्रंथ के मूल पाठ को प्राचीन राजस्थानी गद्य के नमूने की तरह धारावाहिक रूप में छापना प्रारंभ किया। अधिकां ा भाग छप चुकने के बाद यह सिलसिला भी बंद हो गया। पिछले दिनांे श्री अगरचंद नाहटा ने सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट की ओर से इसे प्रकाि ात करने की इच्छा प्रकट की तो मैं तुरंत इसे संपादित कर देने को राजी हो गया। यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि आज से १८ वर्श पहले जिस ग्रंथ को मैंने खोजा था वह मेरे द्वारा ही संपादित करवाया जाकर प्रकाि ात किया जा रहा है।
'दलपतविलास` ४६ पन्नों का एक छोटा सा इतिहास ग्रंथ है। इसका आकार १०.४ गुणा ४.३ इंच है। पुस्तक के ऊपर- ''पु. महाराजकुमार अनूसिंघजी रो छै``- अंकित है। इसका उल्लेख मैंने 'ब्ंजंसवहनम वि त्ंरंेजींदप डेेण् पद जीम ।दनच ैंदेातपज स्पइतंतल` के नामक सूचीपत्र में भी किया है। इससे अनुमान होता है कि प्रस्तुत रूप में यह ग्रंथ किसी प्राचीन हस्तप्रति की प्रतिलिपि है जिसे या तो प्रतिलिपिकार ने अथवा स्वयं लेखक ने ही लिखते-लिखते बीच में ही छोड़ दिया है। संभव है यह प्रतिलिपि महाराजकुमार अनूपसिंह ने अपने निजी पुस्तकालय के लिये करवाई हो। इस प्रकार से अंकित सैंकड़ों हस्तप्रतियां अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में मिलती हैं जिनसे महाराजकुमार अनूपसिंह के निजी पुस्तकालय का होना पाया जाता है। पुस्तक के अंत में जिस अचानक ढंग से कथा-प्रसंग टूटता है उससे यह अनुमान करने का जी चाहता है कि लेखक ने अव य ही इसके आगे लिखा होगा और संभवत: प्रतिलिपिकार ने बीच में छोड़ दिया है। पर ये संभावनायें ही हैं क्योंकि ऐसे विशयों में निि चत रूप से कुछ कहना बहुत कठिन है। महाराजकुमार अनूपसिंह का समय सं. १७२५ तक का है क्योंकि १७२६ में ये गद्दी पर बैठे थे। अत: प्रतिलिपि का समय रचना के लगभग ७० वर्श बाद का बैठता है जो असंगत प्रतीत नहीं होना चाहिए।
'दलपतविलास` दो दृश्टियों से महत्त्वपूर्ण है- एक ऐतिहासिक और दूसरी साहित्यिक। ऐतिहासिक दृश्टि से इसका महत्त्व अकबरकालीन एक समसामयिक रचना होने तथा ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों के समावे ा के कारण है जिनका उल्लेख मुसलमानी तवारीखों में भी इतना सही व स्पश्ट प्रतीत नहीं होता। दूसरे, यह केवल इतिहास ही नहीं अपितु एक ऐतिहासिक व्यक्ति का जीवन-चरित्र भी है, जिससे उसके व्यक्तित्त्व को निकट से समझने में तो सहायता मिलती ही है पर साथ ही उन अनेक घटनाओं की सूक्ष्म जानकारी भी मिलती है, जिनका उल्लेख लेखक ने प्रसंगानुसार किया है, तथा जो मुगलकालीन इतिहासज्ञों द्वारा महत्त्वपूर्ण भी समझी गई हैं।
साहित्यिक दृश्टि से इसका महत्त्व सतरहवीं भाताब्दी के संपुश्ट राजस्थानी गद्य की एक प्रौढ़ रचना के रूप में माना जाना चाहिए। वैसे इससे पहिले के अनेक गद्य-प्रकरण राजस्थानी ग्रंथों-वि ोशत: जैन ग्रंथों-में प्राप्य हैं पर प्रबंध रूप में धारावाहिक ढंग से लिखा दूसरा वि ाुद्ध गद्य ग्रंथ देखने में नहीं आया।
ग्रंथ की महत्ता को और अधिक प्रतिपादित करने की चेश्टा करने के स्थान पर मैं राजस्थान के अन्धकारयुगीन इतिहास के उद्धारक डा. द ारथ भार्मा द्वारा लिखित उन पंक्तियों को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर सकता जो उन्होंने स्वयं द्वारा संपादित 'दयालदास री ख्यात` भाग-२ की भूमिका में प्रस्तुत ग्रंथ के विशय में निम्न प्रकार लिखी हैं। यह सौभाग्य की बात है कि ग्रंथ का ऐतिहासिक दृश्टि से विस्तृत समीक्षण भी डाक्टर साहब ने लिख दिया है जो अविकल रूप में प्रकाि ात कर दिया गया है।
''ठनज वि ंसस जीम चतवेम बीतवदपबसमे पद त्ंपेपदहीरपश्े तमपहद चमतींचे दवदम पे ेव पउचवतजंदज ंे जीम क्ंसचंज टपसंेश्ण् ;जीम ूवता ूंे पितेज इतवनहीज जव उल दवजपबम इल डतण् त्ंूंज ैंतेूंज वि ।दववच ैंदेातपज स्पदतंतलण्द्ध जीम वदसल चपजल पे जींज पज पे तिंहउमदजंतलण् व्जीमतूपेम पज उपहीज ींअम तपअंससमक पद नजपसपजल ंे ूमसस ंे पदजमतमेजए उनबी इमजजमत ादवूद ीपेजवतपमे सपाम जीम ।ाइंतदंउंश् ए जीम उनदजंाींद.नजजंूंतपाीश्ए ंदक जीम ज्ंइंुंज.प.।ांइंतपण्श् ......
व्द जीम डवहींस ब्वनतज ंसेव जीम ेपकमसपहीजे ंतम मगजतमउमसल पदजमतमेजपदह ंदक ीमसच ने पद बवततमबजपदह उंदल उपेजंामे वि जीम ूतपजमते वद डवहींस भ्पेजवतलण् ॅम पिदक जींज भ्मउन ूंे दमअमत ापससमक इल ।ाइंत ीपउेमसयि ीम ूंे जवव ापदक.ीमंतजमक जव बवउउपज जीम कममकण् क्तण् टण् ।ण् ैउपजीश्े बवदजमदजपवद जींज ं इवल वि ।ाइंतश्े ंहम ंदक उमदजंसपजल बवनसक ींतकसल इम मगचमबजमक जव मदजमतजंपद ेनबी मिमसपदहे पदेचपजम वि ।इनस थ्ं्रसश्े चवेपजपअम ंेेमतजपवद जव जीपे मिमिबजए पे ंद मगंउचसम वि जीम इपंेेमक ूंल ीपेजवतल ींे इममद ूतपजजमद ेव ंतिण् ........ ;च्ंहम ५.६ ;प्दजतवकनबजपवदद्ध... क्ंलंसकंे त्प ज्ञीलंज च्ंतज २. ... क्तण् क्ंेीतंजी ैींतउं ... ैंकनस व्तपमदजंस ैमतपमे टवसए २... ।दववच ैंदेातपज स्पइतंतलए ठपांदमतण्द्ध
राजस्थानी इतिहास लेखन की परम्परा
राजस्थानी भाशा मंे दो प्रकार के इतिहास ग्रंथ मिलते हैं। एक तो संस्कृत इतिहास ग्रंथों की परम्परा में लिख गए पद्यबद्ध ग्रंथ और दूसरे फारसी तवारीखों की भौली मंे लिखे गए गद्य गं्रथ। पहली श्रेणी के ग्रंथों को मोटे रूप में चरित्रनायक का वं ावर्णन तथा उसके द्वारा किए गए युद्धों और अन्य स्तुतियोग्य कृत्यों का प्र ास्तिगान मात्र ही अधिकां ा में मिलता है, जबकि दूसरी श्रेणी के ग्रंथों में घटनाओं के विस्तृत वर्णनात्मक प्रसंग रहते हैं। पद्य और गद्य के भेदों के कारण ही यह अंतर स्वाभाविक है। राजस्थानी गद्य मं लिखे गए दूसरे प्रकार के ग्रंथ भी दो रूपों में मिलते हैं... 'वात` और 'ख्यात`। 'वात` केवल एकाध प्रसंग के गद्य में किए गए वर्णन को कहते है। जबकि 'ख्यात` अधिकतर प्रबंध रूप में लिखा गया क्रमानुगत वर्णन होता है। ऐसी भी वातें मिलती हैं जिनमें भाताब्दियों के जातीय इतिहास को सिकोड़ कर सूक्ष्म रूप से लिख दिया गया है, जैसे- बूंदेलां री वात, खीचियां री वात आदि। पर मौटे तौर से लिखी रहने के कारण इन वातों को ख्यात नहीं कहा जा सकता।
ख्यात आव यक रूप से एक प्रबंध है जिसमें क्रमानुगत वर्ण 'वात` की अपेक्षा विस्तृत रूप से मिलता है। 'वात` की ही श्रेणी में अन्य ऐतिहासिक रचनायें भी होती हैं जिन्हें हाल, हकीगत, वृत्तांत, विगत, पीढ़ी, पिरियावली, पट्टावली आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। इन सभी नामों के अनुसार रचनाओं में तनिक भेद होता है पर सार रूप में सभी ख्यात से भिन्न फुटकर ऐतिहासिक कृतियां ही समझनी चाहिए। इन्ही ख्यात और वात आदि के विभेदों के बीच एक तीसरा विभेद वह है जिसमें प्रधानत: एक व्यक्ति के जीवन से संबंधित घटनाओं का विस्तृत वर्णन तथा अन्य प्रासंगिक उल्लेख भी रहते हैं। फारसी में बाबरनामा, हुमायूंनामा, अकबरनामा, जहांगीरनामा आदि ग्रंथ इसी श्रेणी में आते हैं। यद्यपि संस्कृत ग्रंथों की परंपरा में लिखे राजस्थानी चरित्रग्रंथ भी चरित्रनायक के जीवन से संबंधित होने के कारण मोटे तौर पर इसी प्रकार के ग्रंथ कहे जाने चाहिए पर एक तो पद्य में लिखे जाने और दूसरे प्र ास्तिगायन का उद्दे य मुख्य होने के कारण उनमें ऊपर बताये गए 'नामा` नामक ग्रंथों का सा घटनाओं का विस्तार और वर्णनों की बारीकी नहीं आने पाती। इन दूसरे प्रकार के गं्रथों में भी चरित्रनायक की अतिरंजित प्र ांसाये अव य हैं पर प्रसंगानुसार आये हुए व्यक्तियों और घटनाओं का भी विस्तृत और रोचक वर्णन मिलता है। 'दलपतविलास` को भी दूसरी श्रेणी के फारसी ग्रंथों की भौली में लिखा गया चरित्रग्रंथ ही समझना चाहिए क्योंकि इसमें प्रधानत: दलपतसिंह के जीवन से संबंधित विस्तृत वर्णन तथा प्रसंगव ा अन्य घटनाओं का उल्लेख किया गया है। स्पश्ट ही इस ग्रंथ को लिखने की प्रेरणा फारसी जीवन चरित्रों से मिली होगी। लेकिन इस ग्रंथ के अतिरिक्त राजस्थानी गद्य में दूसरा कोई चरित्र ग्रंथ देखने में नहीं आया। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि इस प्रकार का चरित्र ग्रंथ या तो चरित्रनायक स्वयं ही लिख सकता है अथवा हर समय उसके सन्निकट रहने वाला व्यक्ति ही। अन्य किसी व्यक्ति के लिए उन सभी बातों व घटनाओं की सूक्ष्म जानकारी देना संभव नहीं है जिनका चरित्रनायक से गहरा संबंध हो सकता है। चूंकि उपर्युक्त दोनों प्रकार के संयोग दुर्लभ होते हैं अत: इस प्रकार के ग्रंथों का लेखन भी दुश्कर ही होता है।
दूसरा मुख्य कारण गद्य की अपेक्षा पद्य के अधिक प्रचलन का भी है। प्राय: राज दरबारों आदि में भी गीतकारों व काव्यकारों का ही आदर होता था। राजाओं और वीरों की प्र ास्ति गाने वाले कवियों को लाखपसाव और कोड़पसाव मिलते थे। कहीं भी किसी गद्यलेखक को उसकी गद्य रचना के लिए पुरस्कृत किये जाने की उल्लेखनीय घटना सुनने मंे नहीं आई। असल में ऐतिहासिक गद्य रचनाओं का प्रचलन अकबर के समय से ही राजस्थानी मंे आया... इसमंे कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। सभी रजवाड़ों ने उन इतिहास ग्रंथों की देखादेखी अपने-अपने वं ाों की ख्यातें लिखवाई। इसलिए ख्यातों का प्रचलन तो बढ़ा पर चरित्र ग्रंथों की रचना प्राचीन परिपाटी के अनुसार केवल पद्य तक ही सीमित रही। इसलिए राजस्थानी गद्य मंे दलपतविलास अकेला ही चरित्रग्रंथ रह जाता है और वह भी अधूरा।