दळपत विलास : भूमिका


ई. सन् १९४२ में, जब मैं बीकानेर स्थित अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में राजस्थानी भाशा के हस्तलिखित ग्रंथों का सूचीपत्र बनाने के उद्दे य से उनकी छानबीन कर रहा था, मुझे 'दलपतविलास` नामक इस इतिहास ग्रंथ की प्रति मिली। उस समय प्राचीन राजस्थानी गद्य में मेरी रुचि अधिक थी इसलिए मैं सतरहवीं भाताब्दी के मध्यकाल में लिखित इस समसामयिक रचना की ओर आकृश्ट हुआ। पुस्तक में आये हुए एकाध रोचक प्रसंग की चर्चा को लेकर मैंने इस ग्रंथ के प्राप्त होने का उल्लेख माननीय डाक्टर द ारथ भार्मा से किया। उनकी प्रेरणा से मैंने तभी तत्कालीन सादूल प्राच्य ग्रंथमाला में प्रकाि ात करवाने के लिए संपादित करने की दृश्टि से इसकी प्रतिलिपि करवाली थी। पर अनूप संस्कृत लाइब्रेरी से मेरा संबंध-विच्छेद हो जाने के कारण यह कार्य उस समय पूरा न किया जा सका।
सन् १९५३ में जब 'मरुवाणी` मासिक पत्र का प्रका ान प्रारंभ हुआ तो मैंने इस ग्रंथ के मूल पाठ को प्राचीन राजस्थानी गद्य के नमूने की तरह धारावाहिक रूप में छापना प्रारंभ किया। अधिकां ा भाग छप चुकने के बाद यह सिलसिला भी बंद हो गया। पिछले दिनांे श्री अगरचंद नाहटा ने सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट की ओर से इसे प्रकाि ात करने की इच्छा प्रकट की तो मैं तुरंत इसे संपादित कर देने को राजी हो गया। यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि आज से १८ वर्श पहले जिस ग्रंथ को मैंने खोजा था वह मेरे द्वारा ही संपादित करवाया जाकर प्रकाि ात किया जा रहा है।
'दलपतविलास` ४६ पन्नों का एक छोटा सा इतिहास ग्रंथ है। इसका आकार १०.४ गुणा ४.३ इंच है। पुस्तक के ऊपर- ''पु. महाराजकुमार अनूसिंघजी रो छै``- अंकित है। इसका उल्लेख मैंने 'ब्ंजंसवहनम वि त्ंरंेजींदप डेेण् पद जीम ।दनच ैंदेातपज स्पइतंतल` के नामक सूचीपत्र में भी किया है। इससे अनुमान होता है कि प्रस्तुत रूप में यह ग्रंथ किसी प्राचीन हस्तप्रति की प्रतिलिपि है जिसे या तो प्रतिलिपिकार ने अथवा स्वयं लेखक ने ही लिखते-लिखते बीच में ही छोड़ दिया है। संभव है यह प्रतिलिपि महाराजकुमार अनूपसिंह ने अपने निजी पुस्तकालय के लिये करवाई हो। इस प्रकार से अंकित सैंकड़ों हस्तप्रतियां अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में मिलती हैं जिनसे महाराजकुमार अनूपसिंह के निजी पुस्तकालय का होना पाया जाता है। पुस्तक के अंत में जिस अचानक ढंग से कथा-प्रसंग टूटता है उससे यह अनुमान करने का जी चाहता है कि लेखक ने अव य ही इसके आगे लिखा होगा और संभवत: प्रतिलिपिकार ने बीच में छोड़ दिया है। पर ये संभावनायें ही हैं क्योंकि ऐसे विशयों में निि चत रूप से कुछ कहना बहुत कठिन है। महाराजकुमार अनूपसिंह का समय सं. १७२५ तक का है क्योंकि १७२६ में ये गद्दी पर बैठे थे। अत: प्रतिलिपि का समय रचना के लगभग ७० वर्श बाद का बैठता है जो असंगत प्रतीत नहीं होना चाहिए।
'दलपतविलास` दो दृश्टियों से महत्त्वपूर्ण है- एक ऐतिहासिक और दूसरी साहित्यिक। ऐतिहासिक दृश्टि से इसका महत्त्व अकबरकालीन एक समसामयिक रचना होने तथा ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों के समावे ा के कारण है जिनका उल्लेख मुसलमानी तवारीखों में भी इतना सही व स्पश्ट प्रतीत नहीं होता। दूसरे, यह केवल इतिहास ही नहीं अपितु एक ऐतिहासिक व्यक्ति का जीवन-चरित्र भी है, जिससे उसके व्यक्तित्त्व को निकट से समझने में तो सहायता मिलती ही है पर साथ ही उन अनेक घटनाओं की सूक्ष्म जानकारी भी मिलती है, जिनका उल्लेख लेखक ने प्रसंगानुसार किया है, तथा जो मुगलकालीन इतिहासज्ञों द्वारा महत्त्वपूर्ण भी समझी गई हैं।
साहित्यिक दृश्टि से इसका महत्त्व सतरहवीं भाताब्दी के संपुश्ट राजस्थानी गद्य की एक प्रौढ़ रचना के रूप में माना जाना चाहिए। वैसे इससे पहिले के अनेक गद्य-प्रकरण राजस्थानी ग्रंथों-वि ोशत: जैन ग्रंथों-में प्राप्य हैं पर प्रबंध रूप में धारावाहिक ढंग से लिखा दूसरा वि ाुद्ध गद्य ग्रंथ देखने में नहीं आया।
ग्रंथ की महत्ता को और अधिक प्रतिपादित करने की चेश्टा करने के स्थान पर मैं राजस्थान के अन्धकारयुगीन इतिहास के उद्धारक डा. द ारथ भार्मा द्वारा लिखित उन पंक्तियों को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर सकता जो उन्होंने स्वयं द्वारा संपादित 'दयालदास री ख्यात` भाग-२ की भूमिका में प्रस्तुत ग्रंथ के विशय में निम्न प्रकार लिखी हैं। यह सौभाग्य की बात है कि ग्रंथ का ऐतिहासिक दृश्टि से विस्तृत समीक्षण भी डाक्टर साहब ने लिख दिया है जो अविकल रूप में प्रकाि ात कर दिया गया है।
''ठनज वि ंसस जीम चतवेम बीतवदपबसमे पद त्ंपेपदहीरपश्े तमपहद चमतींचे दवदम पे ेव पउचवतजंदज ंे जीम क्ंसचंज टपसंेश्ण् ;जीम ूवता ूंे पितेज इतवनहीज जव उल दवजपबम इल डतण् त्ंूंज ैंतेूंज वि ।दववच ैंदेातपज स्पदतंतलण्द्ध जीम वदसल चपजल पे जींज पज पे तिंहउमदजंतलण् व्जीमतूपेम पज उपहीज ींअम तपअंससमक पद नजपसपजल ंे ूमसस ंे पदजमतमेजए उनबी इमजजमत ादवूद ीपेजवतपमे सपाम जीम ।ाइंतदंउंश् ए जीम उनदजंाींद.नजजंूंतपाीश्ए ंदक जीम ज्ंइंुंज.प.।ांइंतपण्श् ......
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राजस्थानी इतिहास लेखन की परम्परा
राजस्थानी भाशा मंे दो प्रकार के इतिहास ग्रंथ मिलते हैं। एक तो संस्कृत इतिहास ग्रंथों की परम्परा में लिख गए पद्यबद्ध ग्रंथ और दूसरे फारसी तवारीखों की भौली मंे लिखे गए गद्य गं्रथ। पहली श्रेणी के ग्रंथों को मोटे रूप में चरित्रनायक का वं ावर्णन तथा उसके द्वारा किए गए युद्धों और अन्य स्तुतियोग्य कृत्यों का प्र ास्तिगान मात्र ही अधिकां ा में मिलता है, जबकि दूसरी श्रेणी के ग्रंथों में घटनाओं के विस्तृत वर्णनात्मक प्रसंग रहते हैं। पद्य और गद्य के भेदों के कारण ही यह अंतर स्वाभाविक है। राजस्थानी गद्य मं लिखे गए दूसरे प्रकार के ग्रंथ भी दो रूपों में मिलते हैं... 'वात` और 'ख्यात`। 'वात` केवल एकाध प्रसंग के गद्य में किए गए वर्णन को कहते है। जबकि 'ख्यात` अधिकतर प्रबंध रूप में लिखा गया क्रमानुगत वर्णन होता है। ऐसी भी वातें मिलती हैं जिनमें भाताब्दियों के जातीय इतिहास को सिकोड़ कर सूक्ष्म रूप से लिख दिया गया है, जैसे- बूंदेलां री वात, खीचियां री वात आदि। पर मौटे तौर से लिखी रहने के कारण इन वातों को ख्यात नहीं कहा जा सकता।
ख्यात आव यक रूप से एक प्रबंध है जिसमें क्रमानुगत वर्ण 'वात` की अपेक्षा विस्तृत रूप से मिलता है। 'वात` की ही श्रेणी में अन्य ऐतिहासिक रचनायें भी होती हैं जिन्हें हाल, हकीगत, वृत्तांत, विगत, पीढ़ी, पिरियावली, पट्टावली आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। इन सभी नामों के अनुसार रचनाओं में तनिक भेद होता है पर सार रूप में सभी ख्यात से भिन्न फुटकर ऐतिहासिक कृतियां ही समझनी चाहिए। इन्ही ख्यात और वात आदि के विभेदों के बीच एक तीसरा विभेद वह है जिसमें प्रधानत: एक व्यक्ति के जीवन से संबंधित घटनाओं का विस्तृत वर्णन तथा अन्य प्रासंगिक उल्लेख भी रहते हैं। फारसी में बाबरनामा, हुमायूंनामा, अकबरनामा, जहांगीरनामा आदि ग्रंथ इसी श्रेणी में आते हैं। यद्यपि संस्कृत ग्रंथों की परंपरा में लिखे राजस्थानी चरित्रग्रंथ भी चरित्रनायक के जीवन से संबंधित होने के कारण मोटे तौर पर इसी प्रकार के ग्रंथ कहे जाने चाहिए पर एक तो पद्य में लिखे जाने और दूसरे प्र ास्तिगायन का उद्दे य मुख्य होने के कारण उनमें ऊपर बताये गए 'नामा` नामक ग्रंथों का सा घटनाओं का विस्तार और वर्णनों की बारीकी नहीं आने पाती। इन दूसरे प्रकार के गं्रथों में भी चरित्रनायक की अतिरंजित प्र ांसाये अव य हैं पर प्रसंगानुसार आये हुए व्यक्तियों और घटनाओं का भी विस्तृत और रोचक वर्णन मिलता है। 'दलपतविलास` को भी दूसरी श्रेणी के फारसी ग्रंथों की भौली में लिखा गया चरित्रग्रंथ ही समझना चाहिए क्योंकि इसमें प्रधानत: दलपतसिंह के जीवन से संबंधित विस्तृत वर्णन तथा प्रसंगव ा अन्य घटनाओं का उल्लेख किया गया है। स्पश्ट ही इस ग्रंथ को लिखने की प्रेरणा फारसी जीवन चरित्रों से मिली होगी। लेकिन इस ग्रंथ के अतिरिक्त राजस्थानी गद्य में दूसरा कोई चरित्र ग्रंथ देखने में नहीं आया। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि इस प्रकार का चरित्र ग्रंथ या तो चरित्रनायक स्वयं ही लिख सकता है अथवा हर समय उसके सन्निकट रहने वाला व्यक्ति ही। अन्य किसी व्यक्ति के लिए उन सभी बातों व घटनाओं की सूक्ष्म जानकारी देना संभव नहीं है जिनका चरित्रनायक से गहरा संबंध हो सकता है। चूंकि उपर्युक्त दोनों प्रकार के संयोग दुर्लभ होते हैं अत: इस प्रकार के ग्रंथों का लेखन भी दुश्कर ही होता है।
दूसरा मुख्य कारण गद्य की अपेक्षा पद्य के अधिक प्रचलन का भी है। प्राय: राज दरबारों आदि में भी गीतकारों व काव्यकारों का ही आदर होता था। राजाओं और वीरों की प्र ास्ति गाने वाले कवियों को लाखपसाव और कोड़पसाव मिलते थे। कहीं भी किसी गद्यलेखक को उसकी गद्य रचना के लिए पुरस्कृत किये जाने की उल्लेखनीय घटना सुनने मंे नहीं आई। असल में ऐतिहासिक गद्य रचनाओं का प्रचलन अकबर के समय से ही राजस्थानी मंे आया... इसमंे कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। सभी रजवाड़ों ने उन इतिहास ग्रंथों की देखादेखी अपने-अपने वं ाों की ख्यातें लिखवाई। इसलिए ख्यातों का प्रचलन तो बढ़ा पर चरित्र ग्रंथों की रचना प्राचीन परिपाटी के अनुसार केवल पद्य तक ही सीमित रही। इसलिए राजस्थानी गद्य मंे दलपतविलास अकेला ही चरित्रग्रंथ रह जाता है और वह भी अधूरा।


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