लखाण



दो आखर

अध्यापक समाज रै सबसूं बेसी जागरूक वर्ग रा लोग समझ्या जावै। मामूली तनखा में गांवा-कस्बां मंे जिंदगी री मुसकलां सूं जूझता अै बुद्धिजीवी आपरै आस-पास रै समाज नैं अर अपणै आपनैं किण भांत अनुभवै या एक जाणन अर परखण री बात है।
राजस्थान रा सिक्षकां री लिख्योड़ी अर इण संग्रै में भेळी कर्योड़ी अै कुछेक रचनावां आपणी जिज्ञासा नै पूरै। प्राय: सिक्षकर उण अभावग्रस्त परिवारां सूं आवै ज्यांनै जे खाता-पीता मान भी लेवां तो कम सूं कम ऊपरलै वर्ग रा तो नीं कह सकां। हो सकै इसा लोग महाविद्यालयां में मिल जावै। आम अध्यापक तो वो आम आदमी ही है जिकैरी माली हालत चोखी नीं कैयी जा सकै।
कुछेक सधेड़ा लेखकां री बात छोड़ भी देवां, जिका आपरै चौगिरद सूं दूर रा विसयां पर भी सांगोपांग कलम चला सकै, तो घणखरा लेखक आपरै आस-पड़ोस री समस्यावां सूं उळझता दीखै। अै एक जागरूक लेखक खातर सांतरा लक्खण है। पढ़णवाळा टाबरां री निजू मुसकलां, ट्यूसनां रा चक्कर, अध्यापकां री पारिवारिक दिक्कतां, यां सगळां रै होतां थकां भी राश्टप्रेम, चारित्रिक महानता अर दूजा भाा वत मूल्यां नैं थांम्या राखण वाळी कहाणियां अध्यापक वर्ग री खासियत है।
कवितावां रा विसय कहाणियां सूं बेसी अर विविधता लियां है। कवितावां में अध्यापक कवियां री निजू अनुभूतियां नैं तो नकारी नीं जा सकै पण बहोत थोड़ा कवि इसा हुवै जिका ढर्रै सूं टळर कोई नई बात, नई वेदना या नई चेतना दे सकै। फैर भी अध्यापक कवि साहित्य रै मौजूदा बहाव सूं कट्योड़ा नहीं कैया जा सकै।
एक कमजोरी सबसूं पैलां लखावै जिकी या है कै प्राय: लेखक लिखण में बेसी अर पढ़ण में कमती विसवास करै। लिखणो अभ्यास सारू तो ठीक कैयो जा सकै पण जो कुछ लिखै उणनैं छपावण री उतावळ समझ में कोनी आवै। खुद छपण सूं पैलां जे लेखक दूजा छप्योड़ा आछा लेखकां नैं पढ़ै अर परखै तो वांरो खुद रो चिंतवण अर लेखक दोनूं नीतरै।
विसय-वस्तु रै साथै ही भौली री मंजावट अर निखाळोपणो भी घणो जरूरी है। जिण लेखक री आपरी न्यारी अर अळगी रचना भौली है वो दूजां सूं न्यारो ओळख्यो जावै। इण वास्तै भौली गढ़णै में भी पूरी खेचळ अर सुभावीकपणै री जरूरत है। इण प्रसंग में लेखक जे दूजा कारीगरां-कळाकारां री बात समझै-परखै तो वांनै असलियत रो बेरो पटै। लगातार रै अभ्यास सूं ही दूजा कारीगर इसी बसत बणा सकै जिणनैं बजार में राखी जा सकै। अर उण रै पछै और भी बेसी मींनत संू वो इसी चीजां बणा सकै जिकी पारखियां रै साम्हीं राखी जा सकै। रचनावां बाबत भी यो ही क्रम रहणो जरूरी है। पचासां-सैंकड़ां पानां लिख्यां पछै कोई पानो-दो पानो छपण-छपावण जोगा बणै। इण साच नैं लेखक समझ लेवै तो बै बेसी सफळ हो सकै।
काव्य रचना आजकल मंदी पड़ती जा री है। तुकांत गद्य तो बोदो मान्यो जावण लाग्यो। पण जिका कवि इण सूं हेत राखै वै तुकांत काव्य रा नियमां नै समझै अर निभावै जद ही पार पड़ै। बियां काव्य भले तुकांत हुवो या अतुकांत या जाबक गद्य, उण में एक भांत रो प्रवाह, गति, विराम जरूरी है। गद्य सूं पद्य जद ही न्यारो हुवै जद अै गुण उण में आ जावै।
एक बात ध्यान सूं देखण री फेर है। राजस्थानी भासा रै प्रचार-प्रसार री जड़ां में एक सबळी दलील या ही है कै वा आपणीा घर री बोली है, मां रै दूध में घुल्योड़ी। इण रै उण सुभावीकपणै नैं भुळाणो नीं चाईजै। एकरूपता री कोसिसां करतां थकां भी आपरी निजू बोली रो मिठास बिसराणै री चीज कोनी। आज झुकाव यूं दीखै कै लोग 'अैड़ा ह्वै, बड़ियोड़ै, म्हैं` आद अनेक ठेठ मारवाड़ी रा सबदां नैं मांडणो ही राजस्थानी समझै, भले ही वै बांरी खुद री बोली में सफा ओपरा लखावै। इण होड़ सूं बचणै री जरूरत है।
जिका लेखक गांवां रो ठेठ रैवासी है वै गांवां रा सबदां, कैबतां-मुहावरा अर बात कैवण रै खास लहजै सूं भासा नैं ओपती बणा सकै। ठेठ हिन्दी-संस्कृत रा सबद तो जद ही लेवण री जरूरत है जद आपां उण बात नैं आपणा रात-दिन रा सबदां में आपणै समझण लायक ढंग सूं नीं कह सकां। इण वास्तै हिन्दी री तरज री नकल कर देणी कोई चोखी बात कोनी।
अै सगळी बातां खाली अध्यापकां पर ही लागू होती हुवै इसी बात कोनी। आ दिक्कत तो राजस्थानी रै आम लेखक री है।
राजस्थान रै सिक्षा विभाग राजस्थानी भासा अर उणरै साहित्य नैं बढ़ावो देवण सारू या योजना लागू करी है सो बधावणी-सरावण जोग है। इसा संग्रहां री गिणती बढ़ै अर लेखकां री निजी पुस्तकां भी न्यारा-न्यारा विसयां री छपती रैवै तो सिक्षा विभाग रो घणो बड़ो योगदान रैवै।


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