प्राक्कथन
इतिहास-लेखन
प्राय: कहा जाता है कि भारत में इतिहास-लेखन की परम्परा अकबर के समय से प्रारंभ हुई। आईने-अकबरी के लेखन-प्रसंग में अबुल फ़ज्ल को राजपूत राजाओं के इतिवृत्तों की आव यकता हुई, जिससे राजस्थान के राजपूत राजवं ाों ने अपने-अपने वं ाों की ख्यातें बढ़ा-चढ़ाकर लिखवाई। कुछ अं ाों में यह बात सही हो सकती है, पर जिस दे ा में हजारों वर्शों का इतिहास पुराणों के रूप में संग्रहित करके सुरक्षित किया गया और जहां कल्हण एवं जोनराज की राजतरंगिणियां जैसे इतिहास-ग्रंथ लिखे गए, उस पर इतिहास के विशय में इस प्रकार का दोशारोपण ठीक नहीं होगा। यदि एक क्षण के लिए भाटों, रावों, जागों तथा ऐसे ही अन्य वं ाावली रखने वालों की प्रामाणिकता की बात छोड़ भी दें, तो क्या इस प्रकार के व्यापक प्रयत्न इतिहास के क्षेत्र में नहीं आते? निि चत रूप से ही यह परिपाटी न केवल व्यक्तियों के इतिहास-प्रेम की साक्षी है, अपितु जन-साधारण के परिवारों की वं ाावलियों और उनके कालक्रम को सुरक्षित करने का एक प्रयास भी है। ऐसा ही प्रयास उन पंडों का भी है जो तीर्थस्थानों पर जाने वाले परिवारों की जानकारियां रखते आए हैं। यह दूसरी बात है कि व्यावसायिकता पर आधारित होने और साधनों का अभाव होने के कारण इस प्रकार के वृत्त अूलजलूल रूप से गढ़कर अवि वसनीय बना दिए जाते हैं।
हमें यहां मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि राजवं ाों में तथा उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों-राजपुरोहितों-आमात्यों तथा कार्यालयाध्यक्षों द्वारा राजकीय तथा निजी स्तर पर भी अपने समय का सभी महत्वपूर्ण वृत्त लिपिबद्ध किया जाता था। अन्य रुचिसम्पन्न लोग भी ऐसा करते होंगे। इस संबंध में जैन यतियों आदि की लिखी धार्मिक एवं अन्य साहित्यिक रचनाओं और विज्ञप्ति पत्रों में समसामयिक इतिहास की जानकारी दी हुई मिलती है। 'पुरातन प्रबंध-संग्रह` जैसे ग्रंथों में प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं के वृत्त संकलित मिलते हैं। 'कान्हड़दे प्रबंध` के कवि पद्मनाभ ने यह संकेत किया है कि उनका वर्णन जालौर के भाासकों के यहां उपलब्ध पुरानी पत्रावली पर आधारित है। ('मई सांभलीया आगिली भास`-कान्हड़दे प्रबंध, जोधपुर, पृश्ठ २१९, यहां 'भास` से तात्पर्य 'भाशा`-लोकभाशा में लिखित विवरण से है।)
ख्यात-लेखन परम्परा :
आगे चलकर राजस्थान के राजवं ाों के इतिवृत्त दोनों ही ढंग से लिखे जाते रहे। एक तो राजकीय स्तर पर उनके कार्यालयों के माध्यम से तथा दूसरे राजघरानों से संबंधित लोगों द्वारा निजी रूप से। एक और प्रकार था, वि ोश इतिहास लेखक नियुक्त करने का, जैसे उदयपुर के कविराजा भयामलदास, बूंदी के सूर्यमल मिश्रण तथा बीकानेर के दयालदास सिंढ़ायच को चलाकर यह काम सौंपा गया। आगे जाकर इसी पद्धति पर गौरी ांकर हीराचंद ओझा, मथुरालाल भार्मा आदि ने दे ाी रजवाड़ों के इतिहास लिखे। 'मुहता नैणसी री ख्यात` तथा ऐसी ही अन्य कई अनाम ख्यातें संबंधित व्यक्तियों द्वारा निजी रूप से लिखी गई। 'बांकीदास री ख्यात` (जो एक टिप्पणियों का संग्रह मात्र है) भी इसी कोटि की है। अनेक कायस्थ परिवार, जो अधिकां ा में भाासकों के यहां कार्यालयों में नियुक्त रहते थे, इस प्रकार के प्रयत्न करते आए हैं। 'जोधपुर हुकूमत री बही` ऐसे ही एक कायस्थ का प्रयत्न है। हाड़ौती के एक कायस्थ ने कोटा के महाराव किसोरसिंह के साथ दक्षिण में कुछ वर्श बिताते हुए सम-सामयिक जानकारी दी है। यदि ख्यातों के इस पक्ष पर भाोध की जाए तो राजस्थानी इतिहास-लेखन पर अच्छा प्रका ा पड़ सकता है।
राजा वि ोश के राज्य का वर्णन करने वाले कवियों तथा गद्य-लेखकों ने भी उसके पूर्वजों का वर्णन देते हुए उसके समय की जानकारी विस्तार से दी है। अकबरकालीन 'दलपत विलास` नामक गद्य-ग्रंथ तथा 'अजीत विलास` नामक काव्य-ग्रंथ इस प्रकार की रचनाओं के उदाहरण हैं।
तिंवरी पुरोहित की ख्यात :
प्रस्तुत ख्यात 'तिंवरी पुरोहित री ख्यात` के नाम से उल्लिखित एक ग्रंथ का अं ा मात्र है। जसवंतसिंह से संबंधित यह अं ा राजस्थान अभिलेखागार में कुछ वर्शों पहिले की गई लिपि के रूप में प्राप्य है। पृथक्-पृथक् राजाओं से संबंधित अन्य कई ख्यातों के अं ा भी वहां उपलब्ध हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
१. सिंघी प्रयागदास कृत ख्यात : गजसिंह (जोधपुर)
२. मुरारिदान कविया कृत ख्यात : जसवंतसिंह (जोधपुर)
३. बारठ जैतदान कृत ख्यात : जसवंतसिंह (जोधपुर)
४. महाराज मानसिंघजी कृत राजविलास : मानसिंह (जोधपुर)
अन्य कई ग्रंथाकों में भी (४७८९/१०३/१३, ४८४०/१०३/६१, ४७५२/१०२/५, ४७५३/१०२/६, ४७५४/१०२/७, ३७४२/६०/२०) जसवंतसिंह से संबंधित इतिवृत्त हैं।
ये सभी अपेक्षाकृत नई प्रतिलिपियां मूल ग्रंथों से करवाकर किसी निि चत उद्दे य के लिए मंगवाई गई प्रतीत होती हैं। संभवत: ओझा या रेऊ आदि के उपयोग के लिए ऐसा हुआ हो, क्योंकि जोधपुर राज्य के यही दो क्रमबद्ध इतिहास आधिकारिक रूप से लिखे गए हैं। जिस प्रकार बड़े राजघरानों की ये ख्यातें लिखी गईं उसी भौली पर कूंपावतों का इतिहास, चांपावतों का इतिहास, आसोप का इतिहास, जैसलमेर का इतिहास, बदनोर का इतिहास आदि अनेक ग्रंथ समय-समय पर लिखे गए, जिनकी प्रतिलिपियां उपर्युक्त अभिलेखागार एवं ठिकानों के निजी संग्राहलयों में मिलती है। कुछ को आधुनिक रूप देकर प्रकाि ात भी किया जा चुका है।
'तिंवरी` का ठिकाना राजपुरोहितों को राव सूजाजी के समय में, १५८५ वि. की कार्तिक भाुक्ला १५ को अन्य २५ गांवों के साथ दिया गया। (राजपुरोहित जाति का इतिहास, भाग-१, पृश्ठ-१५० के संलग्न वं ा वृक्ष; पृश्ठ-१४८ पर 'तिंवरी` राव जोधा द्वारा दिया गया बताया गया है।) उक्त ठिकाने की 'बही` में जसवंतसिंह के प्रस्तुत वर्णन की भांति अन्य नरे ाों के वर्णन भी दिए गए हैं। 'तखतसिंह` के समय का वर्णन इतिहासकार जगदी ासिंह गहलोत के संग्रह में उपलब्ध होने से यह अनुमान सही प्रतीत होता है। 'बही` में ये वर्णन समय-समय पर लिखे गये होंगे। पर ऐसा भी देखने में आया है कि उन वर्णनों को लगातार सुधारा जाता रहा। जसवंतसिंह के प्रस्तुत वर्णन में महाराजा मानसिंह तक के उल्लेखों से यह बात सिद्ध होती है। दूसरी ख्यातों से भी पूरी सहायता ली गई होगी। 'आंबेर की ख्यात` के ऐसे एकाध उल्लेख प्रस्तुत ख्यात में प्राप्त होते हैं। दूसरे ख्यात-लेखक भी ऐसा करते थे, जैसा कि मथाणिया के जैतदान बारहठ ने भी अपनी ख्यात मंे 'तिंवरी प्रोहित री ख्यात सूं नकल किया` लिखकर व्यक्त किया है। ऐसी परिस्थिति में 'तिंवरी बही` का समग्र अवलोकन किए बिना इस विशय मंे अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा।
बहियों या ख्यातों के लेखक समय-समय पर अन्य स्रोतों से सामग्री का संकलन करते रहते थे, यह बात ऊपर के उद्धरणों से स्पश्ट है। 'जोधपुर हुकूमत री बही` में भी, जो अपेक्षाकृत अधिक समसामयिक समझी जाती है, ऐसे स्रोतों का उल्लेख है। जसवंतसिंह से संबंधित अनेक वर्णन, संवतें-तिथियां-वार तथा व्यक्तियों के नाम, प्राय: एक ख्यात के दूसरी ख्यात से मेल खाते हैं। 'मारवाड़ रा परगना री विगत`, 'मुहता नैणसी री ख्यात`, 'जोधपुर हुकूमत री बही`, 'मारवाड़ री ख्यात` आदि के अधिकां ा वर्णन अक्षर ा: 'तिंवरी प्रोहित री ख्यात` से मेल खाते हैं। इसका एक मात्र कारण यही हो सकता है कि कालक्रम मे पीछे लिखे जाने वाले प्रत्येक ग्रंथ में पूर्ववर्ती ग्रंथों से मदद ली गई है, जो स्वाभाविक भी है। उन स्रोतों का कहीं उल्लेख नहीं होने के कारण पता लगाना बड़ा दुश्कर है।
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