प्रबंध पारिजात



उपोद्धात

प्राचीन काव्यांे का अध्ययन
हिन्दी के प्राचीन काव्यों में राजस्थान के लेखकों द्वारा रचित काव्य अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही अध्ययन के पाठ्यक्रमों में स्थान पा सके हैं। चौदहवीं से अठारहवीं भाताब्दी तक राजस्थान के लेखकों ने डिंगल, पिंगल तथा समसामयिक लोक भाशाओं में अनेक विशयों की रचनायें की हैं। प्रचुर परिमाण में लिखी गई जैन धार्मिक रचनाओं को पृथक् भी करदें तो जैनेतर कृतियों में भी अनेक उत्कृश्ट काव्य इन भाताब्दियों में बहुतायत से रचे प्राप्त होते हैं। पंद्रहवीं भाताब्दी के रणमल्ल छंद, खीची अचलदास री वचनिका, सदयवत्सवीर प्रबन्ध, हंसाउली तथा वीरमायण जैसे ग्रंथों में से एकाध ही अध्ययन का विशय बन सका है। इसी प्रकार सोलहवीं भाताब्दी के कान्हड़दे प्रबंध, हम्मीरायण, गणपति का माधवानल कामकंदला प्रबंध, जआितसीरउ छंद आदि ग्रंथों को लिया जा सकता है। सतरहवीं तथा अठारहवीं भाताब्दियों में तो ऐसे गं्रथों की संख्यायें उत्तरोत्तर बढ़ती गई जिनमें अनेक उच्चकोटि की रचनायें थीं। हालांझालां रा कुंडलिया, हरिरस, महादेव पार्वती री वेलि, नागदमण, गजगुणरूपक, रतन महेरादासोत री वचनिका, दुरसा आढ़ा का काव्य, कु ाललाभ की रचनायें, रामरासो, राजरूपक, सूरजप्रका ा, विन्हैरासो आदि ग्रंथ अभी अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं।
कुछ विद्वानों ने उपर्युक्त ग्रंथों में से कुछ को अपने अध्ययन का विशय बनाकर, भाब्दार्थ, भावार्थ, टिप्पणियों आदि से समन्वित सुसम्पादित संस्करण प्रस्तुत किए हैं, जो अभिनंदनीय है। पर इन ग्रंथों में किए गए अर्थों को भी आगे परिश्कृत करने की दि ाा में साहित्य-समाज ने कोई रुचि प्रदि र्ात नहीं की है। इसके अभाव में धीरे-धीरे प्राचीन काव्यों का सही अर्थ बताने और समझने वाले पारखियों का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है। इसलिए यह आव यक है कि छात्रों को प्राचीन काव्यों के अध्ययन के लिए प्रेरित किया जाए। ऐसा तभी संभव है जब अधिक से अधिक प्राचीन कवियों के काव्यों की बानगियां उनके अध्ययन की विशय बनाई जायें।
प्रस्तुत संकलन मंे सम्मिलित कवि नरपति नाल्ह, भांडउ व्यास और कु ाललाभ अपने-अपने समय की साहित्यिक धाराओं का सम्यक् प्रतिनिधित्व करते हैं। नरपति के 'वीसलदेवरास` में तेरहवीं भाताब्दी मे प्रचलित भाृंगारपरक लौकिक प्रेमाख्यान को रासनृत्य गायन भौली में प्रस्तुत किया गया है। भांडउ व्यास के 'हम्मीरायण` में वीरगाथात्मक चरित काव्य के लक्षण स्पश्ट हैं। चरित, चउपई, रासो आदि ऐसे काव्य इन भाताब्दियों की प्रमुख रचनायें होती थीं। कु ाललाभ की माधवानल कामकंदला चौपई प्रेमकथाओं के प्रचलित स्वरूप का प्रतीक है जिसे जैन लेखकों ने भाील, सदाचार, सतीत्व आदि सद्गुणों की प्रतिश्ठा के लिए माध्यम बनाया। इस प्रकार विभिन्न कालों में लिखी गई इन प्रतिनिधि रचनाओं से राजस्थान में लिखे गए साहित्य की जानकारी हो सकेगी।
इन कवियों तथा इनकी रचनाओं के विशय में यहां समीक्षात्मक सामग्री देने के अतिरिक्त भाब्दार्थ एवं टिप्पणियां भी दी गई हैं। कवियांे के निजी ज्ञातव्य, रचनाकाल, काव्य-परम्परा, भाशा, साहित्यिक सौन्दर्य आदि देकर काव्यों पर पूरा प्रका ा डालने का प्रयत्न भी किया गया है। समीक्षाओं में विद्वानों की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए भी एक नया दृश्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार मान्यताओं के पिश्टपेशण से हटकर स्वतंत्र मत का प्रतिपादन भी हो सका है। ऐसा करना स्वतंत्र चिन्तन को प्रेरित करने के लिए उचित रहेगा।

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