प्राक्कथन
प्रस्तुत संकलन में संग्रहीत निबंध अधिकारी विद्वानों द्वारा लिखे गए हैं। 'राजस्थानी गद्य की एकरूपता` और 'हिन्दी को राजस्थानी साहित्य की देन` विशयक दो विद्वत् गोश्ठियों में आमंत्रित श्रोताओं के समझ पढ़े जाने पर ये निबंध चर्चा के विशय बने हैं। इन गोश्ठियों का आयोजन राजस्थान भासा प्रचार सभा, जयपुर द्वारा किया गया।
निबंधों मे विद्वान लेखकों ने हिन्दी के वर्तमान स्वरूप में राजस्थानी गद्य का औचित्य सिद्ध करते हुए उसकी वि ोशताओं का दिग्द र्ान भी कराया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में इतिहास-लेखकों द्वारा की गई राजस्थानी साहित्य की उपेक्षा पर असंतोश तथा विरोध प्रगट करते हुए निबंधों मंे राजस्थानी के पृथक् अस्तित्व ओर उसके पृथक् इतिहास पर बल दिया गया है।
मातृभाशा को ही ि ाक्षा का माध्यम स्वीकार करने और उसी के फलस्वरूप भाशा की समृद्धि के दृश्टांतों की बात कहकर विद्वान लेखकोें ने यह प्रमाणित कर दिया है कि राजस्थानी भाशा और साहित्य का भविश्य हिन्दी से पृथक् ही अपने अस्तित्व को संवर्द्धित और संपुश्ट करने में निहित है।
यह मानते हुए भी कि राजस्थानी साहित्य का अतीत अत्यनत गौरवान्वित है, तथा राजस्थानी भाशा में अन्तर्निहित सामर्थ्य उसकी साहित्यिक समृद्धि के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम है, इस तथ्य पर भी बल दिया गया है कि आधुनिक युग की आव यकताओं और वैज्ञानिक युग के संघर्शमय जीवन के साथ कदम न मिलाता हुआ राजस्थानी साहित्य यदि अधुनातन विधाओं और नवीनतम प्रयोगों से विलग रहा तो राजस्थानी भाशा और साहित्य केवल अतीत की वस्तुएं ही रह जाएंगी। इसलिए इन निबंधों में रचनाकारों से यह मार्मिक अपील भी की गई हैं कि वे समय की चाल पहिचानें और राजस्थानी भाशा तथा साहित्य को नई दि ाायें और नई गति प्रदान करें।
आधुनिक राजस्थानी भाशा और साहित्य की सभी समस्याओं पर प्रका ा डालना न तो इन गोश्ठियों का लक्ष्य ही था और न इनकी चर्चा ही समग्र रूप से इस संकलन के पृश्ठों में हो पाई है। चर्चा के दो स्पश्ट लक्ष्य है।। एक तो यह कि हिन्दी और राजस्थानी परस्पर सन्निकटता के बावजूद दो पृथक्-पृथक् भाशाएं हैं और दोनों की आव यकताएं तथा संभावनाएं भी न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी के क्षेत्र के लब्धप्रतिश्ठ लेखकों द्वारा जो आज तक यह भ्रम फैलाया गया है कि राजस्थानी हिन्दी की एक बोली मात्र है, उसमें निहितस्वार्थ भाव की गंध स्पश्ट हो गई है। राजस्थान में व्याप्त आि ाक्षा तथा राजस्थानी नरे ाों की इस ओर रही उदासीनता ने हिन्दी क्षेत्र के भाशायी और साहित्यिक आक्रमण को बिना किसी विरोध के सहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि आज राजस्थान के पढ़े-लिखे कहलाने वाले लोग भी अपनी ही मातृभाशा को हेय दृश्टि से देखने लगे हैं। उनकी अज्ञानता ने उन्हें इतना पुंसत्वहीन बना दिया है कि वे न केवल मातृभाशा के अपमान को सहन कर लेते हैं वरन् स्वयं भी उसके सामर्थ्य के प्रति अनास्था प्रकट करते हुए उसे दुगुना अनादृत करते हैं। स्पश्ट है कि ऐसे लोगों के स्वयं की विचार-बुद्धि नहीं होती। वे अखबारी प्रचार और नामधारी निहितस्वार्थ विद्वानों के पक्षपातपूर्ण कथन से बहकावे में आ गये हैं। यह खेद की बात है कि ऐसी अधकचरी विचारधारा के हावी हमारे ि ाक्षा विभाग में सर्वाधिक मात्रा में है। इस स्थिति का एक भयंकर दुश्परिणाम यह हो रहा है कि मातृभाशा के प्रति उपेक्षा, अनास्था और अनादर के भावों को यह विश अनजान रूप से हमारी भावी पीढ़ियों की नस-नस में भरा जा रहा है। इस अनर्थ को तुरंत और प्रभाव ााली रूप से कुचल डालने के लिए राजस्थानी के पुनरुद्धार का पुण्य कार्य व्यक्तियों तथा संस्थाओं का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। इसी कर्त्तव्य की ओर इन निबंधों मे कुछ संयत इंगित किए गये हैं।
राजस्थानी क्षेत्र के सभी विद्वान उपर्युक्त कर्त्तव्य के प्रति जागरूक हैं और उनके लक्ष्य स्पश्ट हैं। राश्ट्रीय एकता के नाम पर राजस्थानी को पददलित करेन का बहाना ढूंढ़ने वाले हिन्दी प्रेमियों को हमने अनेक ा: आ वस्त कर दिया है कि हिन्दी हमारी राश्ट्रभाशा के रूप में हमारी ि ारोधार्य है। हिन्दी का अनादर हमारे लिए वैस ही सह्य नहीं है जैसे देववाणी संस्कृत का। पर राजस्थानी माता के दूध में घुलकर हमारे रक्त में समाई है, वह हमारे कण्ठों से फूट कर स्वरित हुई है। उसकी प्रतिध्वनियों तक ने हमें प्राणोत्सर्ग के लिए विव ा कर दिया है। इसलिए हिन्दी राजस्थान में अव य रहेगी पर राजस्थानी के मोल पर नहीं। सिर के ताज (हिन्दी) की रक्षा अव य की जाएगी पर गला (राजस्थानी) कटा कर नहीं। ऐसे ही कुछ उद्गार एक समारोह में राजस्थान के वर्तमान वित्तमंत्री श्री मथुरादास माथुर ने भी कहे थे।
हिन्दी के साम्राज्यवाद की निन्दा करने वाले कुछ सुलझे हुए हिन्दी क्षेत्र के आलोचकों ने भी यह स्पश्ट कर दिया है कि हिन्दी का हित इसी में है कि वह हिन्दी क्षेत्र के अन्तर्गत मानी जाने वाली भाशाओं- राजस्थानी, भोजपुर, ब्रज आदि कि स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर उन्हें विकसित होने का अवसर दे। जिस प्रकार गुजराती, मराठी, पंजाबी, बंगला आदि अनेक भारतीय प्रादेि ाक भाशाओं से हिन्दी के राश्ट्रभाशा रूप को कोई भय नहीं है, उसी प्रकार राजस्थानी आदि भाशाओं से भी नहीं होगा। वस्तुत: तो हिन्दी का अपना कोई क्षेत्र है ही नहीं। सभी क्षेत्रीय भाशाओं के सम्पर्क-सूत्र के रूप में अखिल राश्ट्र में हिन्दी व्यवहृत है और होती रहेगी। यही उसका राश्ट्रभाशा स्वरूप है।
चर्चा का दूसरा प्र न राजस्थानी के सम्यक् विकास के लिए उसके गद्य की एकरूपता का है। यह प्रसन्नता का विशय है कि राजस्थानी साहित्यकारों ने पहली बार एक मंच पर बैठकर सभी प्रकार के भेदभावों को भुलाकर राजस्थानी गद्य की एकरूपता के कुछ मूल प्र नों को सर्वसम्मत रूप से निर्णीत किया। पर कागाजों पर किए गए निर्णयों को क्रियान्वित करेंगे वे क्षेत्रीय रचनाकार जो निश्पक्ष रूप से उन्हें अपनी रचनाओं में व्यवहृत करेंगे। आज राजस्थान में कोई मोहनदास कर्मचंद गांधी नहीं है जो हमारी जोड़नी (व्याकरण रूप) पर दृढ़ता से लिखे कि इसमें अब और आगे परिवर्तन करने का कोई अधिकार किसी भी विद्वान को नहीं होगा। साहित्यिक दलबंदी से ग्रस्त हमारे कुछ भाई ऐसे हैं जो इन निर्णयों की उपेक्षा करना ही उचित समझते हैं और अपनी संकुचित क्षेत्रीय बोली में रचनाएं करते जा रहे हैं, संभवत: यह समझकर कि जो कुछ वे लिख रहे हैं वही अमर बन जायेगा। एक तरह से राजस्थानी के योजनाबद्ध विकास की दि ाा में ये कंटकस्वरूप अड़चने हैं। इन्हें कुचलने के लिए स ाक्त पदों की आव यकता है। राज और समाज की उदासीन वृत्ति तथा आपाधापी के इस युग में उचितानुचित की समीक्षा किए बिना दिए जाने वाले पक्षपातपूर्ण राजकीय प्रश्रय ने ऐसी प्रवृत्तियों को घातक रूप से बढ़ने के अवसर प्रदान किए हैं। पर भटके हुए यात्री या तो मार्गभ्रश्ट होकर कहीं बियावान में थककर समाप्त हो जाते हैं अथवा लौटकर सही दि ाा में चल पड़ने लगते हैं।
राजस्थानी के आधुनिक समर्थकों ने भी यदि इस गंभीर प्र न पर पूरा ध्यान नहीं दिया तथा अपनी रचनाओं को प्रांतव्यापी स्वरूप प्रदान नहीं किया तो राजस्थानी का द्विवेदी युग पुन: इं ााअल्लाखां तथा लल्लूलाल का युग बन जायेगा।
ऊपर कहे गये भाब्दों मंे कुछ कड़ुवाहट का अनुभव हो सकता है पर यह अप्रिय सत्य हमारी वर्तमान अवस्था के लिए सम्यक् उपचार का कारण बन सके तो भर्त्सना का पात्र बनने में इन पंक्तियों के लेखक को प्रसन्नता होगी। (आखातीज, २०२६)
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