भूमिका
'वेलि` नामकरण और साहित्य
'वेलि` साहित्य संबंधी सम्पूर्ण चर्चा के मूल में राठौड़ प्रिथीराज कृत 'क्रिसन रुकमणी री वेलि` है। प्रस्तुत वेलि अपने रचनाकाल से ही कवियों और आलोचकों की प्र ांसा का विशय बनी आ रही है। डा. एल.पी. टैस्सीटोरी द्वारा इसके मूल पाठ का प्रका ान किये जाने के बाद दे ाी विद्वानों का ध्यान इस ओर पुन: आकर्शित हुआ, और बीकानेर के ठाकुर जगमालसिंह द्वारा की गई टीका को बीकानेर के ही तीन विद्वानों- सर्व श्री सूर्यकरण पारीक, ठाकुर रामसिंह तथा नरोत्तमदास स्वामी ने सम्मिलित रूप से आधुनिक विधि से सम्पादित कर प्रकाि ात करवाया। इस उत्कृश्ट ग्रंथ को हिन्दी साहित्य की विभिन्न परीक्षाओं में पाठ्यग्रंथ के रूप में निर्धारित कर साहित्य जगत् ने समुचित आदर भी दिया। पाठ्यग्रंथ बन जाने के कारण व्यावसायिक दृश्टि से अन्य विद्वानों ने भी इसे अपने ढंग से सम्पादित और प्रकाि ात कर कुछ संस्करण निकाले।
धीरे-धीरे कुछ विद्वानों के मन में यह उत्कण्ठा हुई कि 'वेलि` नाम धारी रचनाओं की खोज कीजाय और यह देखा जाय कि ्रप्रिथीराज की 'वेलि` उस परम्परा में कहां और कैसी ठहरती है। इस प्रेरणा को लेकर अनेक प्रयत्न किये गये और 'वेलि` नामधारी रचनाओं की एक विस्तृत सूची सामने आई। एक अन्वेशक ने इसे अपने अनुसंधान का विशय भी बनाया और पीएच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की।
जहां तक अन्वेशकों के प्रकाि ात विचारों को पढ़ने को अवसर मुझे प्राप्त हुआ है, मेरी यह धारणा बनी है कि इस विशय को आव यकता से अधिक तूल दिया गया है। उचित तो यह हो कि हम इस अध्ययन को तीन मुख्य पहलुओं तक ही सीमित रखें। पहला तो यह कि 'वेलि` नाम धारी सम्पूर्ण रचनाओं को क्या एक सूची में रखना किसी भी स्थिति में उचित है? विशय, छंद और भौली किसी भी दृश्टि से ये रचनायें क्या एक श्रेणी में आ सकती हैं? वि ोश तौर पर जैन और भक्ति तथा लोक भौली की 'वेलि` नाम धारी रचनायें चारणी वेलियों से क्या कुछ भी मेल खाती हैं?
दूसरा यह कि 'वेलि` भाब्द तथा इस नामकरण के अधीन प्र्राप्य अनेक चारणी व इतर रचनाओं की विशय वस्तु के अध्ययन द्वारा यह निश्कर्श निकाला जाना चाहिए कि यह नामकरण 'वेलियो` छंद के कारण है अथवा 'वेलि` भाब्द में निहित किसी विि ाश्ट अर्थ के कारण अथवा दोनों के कारण है।
तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण प्र न यह है कि साहित्य में 'वेलि` नामक रचनाओं का श्रीगणे ा और कवियों में इस भौली का प्रचलन का प्रारम्भ कब और किस रचना से माना जाना चाहिए।
उपर्युक्त तीनों प्र नों का संतोशजनक समाधान प्राप्त होने पर इस विशय पर विस्तृत अध्ययन की संभवत: कोई वि ोश आव यकता नहीं प्रतीत होगी। आइये, हम इन प्र नों पर कुछ विचार करने का प्रयत्न करें।
'वेलि` नाम धारी जिन रचनाओं का अभी तक पता लगा है, या जिनके पाये जाने की संभावना भी हो सकती है, उन्हें हम निम्नलिखित भाीर्शकों में विभाजित कर सकते हैं। हर भाीर्शक के अधीन ज्ञात वेलियों में से कुछ का नामोल्लेख भी हम करदें :-
चारणी वेलियां-
१. क्रिसन रुकमणी री वेलि : प्रिथीराज
२. महादेव पारवती री वेलि : किसनउ
३. किसनजी री वेलि : करमसी सांखला
४. गुण चांणिक वेलि : चूंडो दधवाडियौ
५. देईदास जैतावत री वेलि : अखौ भाणौत
६. रतनसी खींवावत री वेलि : दूदौ विसराल
७. उदैसिंघ री वेलि : रामो सांदू
८. राजा रायसिंघ री वेलि : मालो सांदू
९. राव रतन री वेलि : कल्याणदास महड़ू
१०. सूरसिंघ री वेलि : गाडण चोलो
११. अनोपसिंघ री वेलि : गाडण वीरभांण
१२. चांदाजी री वेलि : बीठू मेहो
जैन वेलियां-
१. चिहूंगति वेलि : वांछा
२. जम्बू स्वामी वेलि : सीहा
३. रहनेमि वेलि : सीहा
४. पंचेन्द्रिय वेलि : ठकुरसी
५. गरभ वेलि : लावण्यसमय
६. क्रोध वेलि : मल्लिदास
७. सुद र्ानस्वामी नी वेलि : वीरचंद
८. लघुबाहुवलि वेलि : भाांतिदास
९. जइत पद वेलि : कनकसोम
१०. ऋशभगुण वेलि : ऋशभदास
११. वारह भावना वेलि : जयसोम
१२. सुजस वेलि : कांतिविजय
१३. नेमराजुल वेलि : चतुर विजय
१४. विक्रम वेलि : मतिसुन्दर
१५. नेमि वर स्नेह वेलि : उत्तम विजय
हिन्दी भक्ति साहित्य की वेलियां-
१. दुखहरण वेलि : सवाई प्रतापसिंह
२. कृश्ण गिरिपूजन वेलि : हित वृन्दावनदास
३. हित रूपचरित वेलि : हित वृन्दावनदास
४. आनन्दवर्द्धन वेलि : हित वृन्दावनदास
५. राधाजन्म उत्सव वेलि : हित वृन्दावनदास
६. भक्त सुजस वेलि : हित वृन्दावनदास
७. करुणा वेलि : हित वृन्दावनदास
८. हरिकला वेलि : हित वृन्दावनदास
९. वेलि : हित वृन्दावनदास
लौकिक वेलियां-
१. रामदेवजी री वेल : संत हरजी भाटी
२. रूपांदे री वेल : संत हरजी भाटी
३. तालांदे री वेल : संत हरजी भाटी
४. रत्नादे री वेल : तेजो
५. पीर गुमानसिंघजी री वेल
उपर्युक्त चारों प्रकार की वेलियों के निरीक्षण से पता चलता है की सभी चारणी वेलियां 'वेलियो साणोर` नामक विि ाश्ट डिंगल छंद में लिखी गई हैं, जबकि जैन, भक्ति और लौकिक वेलियां विभिन्न छंदों में। चारणेतर किसी भी वर्ग की सब वेलियां किसी वि ोश छंद मंे नहीं लिखी गई है। इससे स्पश्ट है कि उन वर्गों की वेलियों के नामकरण का उनके छंदों से कोई संबंध नहीं है। चारणी और चारणेतर वेलियों के इस मूल अंतर को देखते हुए यह भी स्पश्ट हो जाना चाहिए कि इन सभी वेलियों को एक सूची में रखना नितांत अनुपयुक्त है। जहां चारणेतर वेलियां चारणी वेलियों से मेल नहीं खाती वहीं वे परस्पर भी किसी प्रकार का मेल नहीं खाती।
पर, चूंकि इन सभी रचनाओं को लेखकों ने 'वेलि` नाम से अभिहित किया है इसलिए दूसरा उपाय विशयवस्तुगत साम्य ढूंढ़ने का ही है। यह माना हुआ सिद्धांत है कि अधिकां ा भारतीय भाशाओं की रचनायें मूल रूप में संस्कृत साहित्य की विभिन्न विधाओं से प्रभावित रही हैं। संस्कृत में लता, लतिका, वल्लरी, कल्पलता, मंजरी, लहरी आदि नामों वाली रचनाओं की परम्परा रही है। यही परम्परा दे ाी भाशाओं में भी आई जिसके फलस्वरूप हिन्दी, राजस्थानी आदि भाशाओं में भी इन नामों से रचनायें हुईं। वल्लरी, लता, लतिका, वेलि और बेल - ये सब एक ही भाब्द के पर्याय समझे जाने चाहिए। ज्यों-ज्यों दे ाी भाशाओं का प्रभाव बढ़ता गया संस्कृत भाब्दों के स्थान पर दे ाी भाब्दांे का प्रयोग भी बढ़ता गया। इसलिए 'लता` और 'वल्लरी` के स्थान पर धीरे-धीरे 'वेलि` और फिर 'वेल` का प्रयोग भाुरू हुआ। 'वेलि`, 'लता` या 'वल्लरी` नामक रचनाओं के वि लेशण से एक तथ्य सामने आता है कि ये सभी मूल रूप में य ाोगान संबंधी रचनायें हैं। आराध्यदेव, आश्रयदाता, विि ाश्ट सुचरित्र व्यक्ति अथावा कल्याणकारी विशय- इनमें से चाहे किसी को भी लक्ष्य कर वेलि रचना की गई हो उसकी अन्तर्भूत मनसा उस देव, व्यक्ति अथवा विशय का य ा-वर्णन करने की ही होगी। कहीं भी यह नहीं देखा गया कि किसी की निन्दा अथवा कोरे तथ्यवर्णन को वेलि का विशय बनाया गया हो। इस तथ्य से यह निश्कर्श निकाला जा सकता है कि वेलि रचनायें प्रधानत: य ाोगान के उद्े य से लिखी जाती थीं। पर, इनका नाम वेलि ही क्यों रखा गया यह भी विचारणीय है। बेल मे जैसे एक बीज प्रस्पुटित होकर भात ा: पल्लवित और पुश्पित होता हुआ, चारों दि ााओं में छा जाता है, उसी प्रकार कवि के आराध्य देव, मानव या विशय की कीर्ति उसके गायन से सर्वत्र व्याप्त हो जाये - यही भावना इस नामकरण के मूल में समझी जानी चाहिए।
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