आयरलैण्ड के राश्ट्रपति डी. वेलरा ने कहा था- 'आयरलैण्ड की स्वतंत्रता एवं आयरि ा भाशा में से एक ही विकल्प चुनना पड़े तो मैं आयरि ा भाशा को चुनूंगा। आयरि ा भाशा का मातृवत साथ रहेगा तो स्वतंत्रता को आने से कोई नहीं रोक सकता।`
ऐसी ही बात जैसलमेर का रावल हरराज कहता है-
जावै गढ़ राज भलां भल जावो, राज गयां नहं सोच रती।
गजब हुवै कविराज गयां सूं, पलटै मत बण छत्रपती।।
अर्थात् जैसलमेर का राज्य, किला यदि मेरे हाथ से निकल जाते हैं तो भी मुझे रंच मात्र भी चिंता नहीं हैं पर यदि मेरी मातृभाशा के सर्जक कविराजा चले जाते हैं तो मेरे लिए अनर्थकारी हैं। छत्रपति बने रहने पर भी मति मारी जाएगी। बुद्धि को पैनी धार तो मातृभाशा ही देती है।
इन दोनांे उदाहरणों मंे मातृभाशा द्वारा प्रदत्त सहजजीवन बोध एवं सामर्थ्य उद्घाटित होता है। यह बोध हमारे सांस्कृतिक प्रतीक कराते हैं। यह बोध ही रावत सारस्वत जैसे सामान्य व्यक्ति को अंग्रिम पंक्ति में ला खड़ा करता है। प्रतिदिन के चौबीस घण्टे में से सोने, सपने देखने, नहाने, खाने, निवृत्त होने, आजीविका कमाने आदि में अधिकां ा समय काल कवलित हो जाता है। इन सबका हिसाब करें तो चार-छह घण्टे ऐसे बचते हैं जो व्यक्ति के अपने क्षणों में गिने जाते हैं। रावत सारस्वत भी इससे विलग नहीं थे। यह बचा हुआ समय या यों कहें कि रावत सारस्वत ने इस खंडित समय को कुछ क्षणों की अनुभूति में बदलकर असंभव को संभव कर दिखाया। यह किया स्मृति रेखाओं को बचाए रख उन्हें मर्म से जोड़ मंथन तक पहुंचाया। उसी मंथन से निकले निश्कर्श की अनुभूति में डूबकर उसे भाा वत रूप दिया तथा स्वयं को भाव द ाा में ढाल लिया। इसी से रावत सारस्वत में समाज एवं संस्कृति छविमान हो गई। वास्तव में रावत सारस्वत का जीवन वर्शों की संख्या के रूप में नहीं नापा जाना चाहिए बल्कि उनके जीवन के कुछ विलक्षण समय वि ोश के क्षणों के रूप में ही रूपायित होना चाहिए।
इसी संदर्भ में रावत सारस्वत को समझने की आव यकता है। वे अपने समय के समानान्तर चले व समय की ि ाला पर पदचिह्न भी छोड़ गए। इसीलिए उनका वह निजी समय भी सामान्य जन का हो गया। वे 'मैं` से 'हम` हो गए। रावत सारस्वत की मातृभाशा का सवाल राजस्थानी समाज की मातृभाशा का सवाल बन गया। क्योंकि सन् १९४७ तो घटित हो गया। उसे कैसे घटित होना चाहिए था? उसके व्याख्यामूलक पुनर्सृजन में रावत सारस्वत लग गए। समाज की धारावाहिक चेतना के उस क्षण को मूर्त रूप देकर सत्ता की राजनीति करने वाले अधम लोगों को उन्होंने आंखों में अंगुलियां डालकर उनकी भूल का अनुभव करा दिया। अतीत, वर्तमान एवं भविश्य के भाल पर अपनी आत्मानुभूति का इतिहास रचकर उन्होंने अपने समय को चमत्कृत कर दिया।
रावत सारस्वत समाज में से ही थे। समाज भी थे। उनके सामने राणा प्रताप के सुविधाओं को ठुुकराकर असुविधाओं को स्वीकार करने के साहस की रोमांचित करने वाली साहित्य परम्परा थी तो साथ ही परिवार की सामन्ती प्रथाएं भी उसी वेग से साथ थीं। राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम के अद्भुत उद्घोश भी सामने थे तो मीरां के विश का प्याला पीने वाली यंत्रणादायी गाथा भी थी। कदीमी संस्कार भी साथ थे तो सतरंगी राजस्थानी संस्कृति की छत्रछाया भी थी। वे जानते थे कि इतिहास विरोधाभासों का समन्वय करता है। इसी कारण उन्होंने इतिहास के दं ा को झेला। इतिहास एवं समाज के पुनर्सृजन मे ंबिना समय खोए, बिना किसी का इन्तजार किए लग गए। निश्ठा से लगे थे। निस्स्वार्थ भाव से लगे थे। इसी कारण विचारों को आचार में बदल दिया। जैसा चाहा वैसा समाज में माहौल खड़ा कर दिया। सामूहिकता एवं संघर्श को एक पंगडडी में बदल दिया। उस पगडंडी पर आजीवन चलते रहे तथा चलते रहने वालों की एक लम्बी कतार भी खड़ी कर गए। उस कतार में उमंग भी भर गए कि न्याय प्राप्त करके रहेंगे। रावत सारस्वत के समूहगत विचार का दायरा इतना फैला कि वह आज जन आंदोलन बनता जा रहा है। यही रावत सारस्वत की ऐतिहासिक प्रासंगिकता है। इसलिए रावत सारस्वत के लिए न तो 'महान` का वि ोशण फबता है तथा न असामान्य का। उन्हें तो अद्वितीय ही कहा जा सकता है।
रावत सारस्वत ने राजस्थानी के प्र न पर अनेक मोर्चों पर एक साथ संघर्श का बिगुल बजाया। यह संघर्श रचनात्मक आधार पर खड़ा किया गया। क्योंकि वे जानते थे कि संघर्श रचनात्मक धरातल पर नहीं खड़ा होगा तो वह 'रोळा` बनकर रह जाएगा। उन्होंने अपने व्यक्तिगत को समूहगत बनाया। वर्तमान को ऐतिहासिक बनाया। इसी कारण वे मात्रात्मक प्रतिभा को गुणात्मक बनाने में सफल हुए। इसमें उनका निरन्तर लगे रहना ही सबसे बड़ा कारण रहा। राजस्थानी के लिए समय खलनायक बन गया था। रावत सारस्वत अपने कार्य के बल से ही उस खलनायक समय की कश्टदायक पकड़ को ढीली करने में कामयाब हुए। उन्होंने राजस्थानी विचार की लड़ाई का निर्णय लिया और उसे सामाजिक निर्णय मंे बदल दिया। यही उनकी सफलता है। यही उनकी महत्ता है।
रावत सारस्वत यह भी जानते थे कि साहित्यकार के लिए अपनी रचना का प्रका ान दुश्कर कार्य बन गया है। इसलिए उन्होंन लेखकों का सहकारी संगठन बनाया। सहकारी मुद्रणालय भी उन्होंन स्थापित किया। 'संक्षिप्त राजस्थानी सबद कोस` तथा 'राजस्थानी भाशा का संक्षिप्त इतिहास` भी उन्होंने तैयार किया। राजस्थान का सांस्कृतिक कोश भी वे तैयार कर रहे थे। उन्होंने राजस्थान सहकारी समिति लि. के माध्यम से भी राजस्थानी लेखकों की अनेक पुस्तकें छपवाई।
मरुवाणी पत्रिका, राजस्थानी भाशा परीक्षाएं, अनुवाद, प्राचीन काव्य संपादन, नवीन राजस्थानी कविता-कहानियों की पुस्तकों का संपादन, मौलिक कविता सृजन-बखत रै परवाण, अणगाया गीत, चैत रा चितराम, मीणा इतिहास इत्यादि कृतियां लीक से हटकर तैयार की। रावत सारस्वत की मान्यता थी कि लेखन अपनी परम्परा का आधार ग्रहण करता है। बिना आधार के लेखन खड़ा नहीं रह सकता। इसके लिए वे कहते थे कि मूल आधार के बिना नहीं लिखूंगा। लिखूंगा उसकी जड़ जरूर मिलेगी। संभावित सत्य कहे बिना नहीं रहूंगा। अपने इस सत्य को उजागर करने के लिए उन्होंने 'समकालीन भारतीय साहित्य` (साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली), 'कॉण्टेमप्रेरी इण्डियन लिट्रेचर` (साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली), मधुमति (उदयपुर), जागती जोत (बीकानेर), वरदा (बिसाऊ), राजस्थान भारती (बीकानेर), सरस्वती (इलाहाबाद), मरुभारती (पिलानी), बिणजारो (पिलानी), राश्ट्रपूजा (कलकत्ता), राश्ट्रदूत (जयपुर), राजस्थान पत्रिका (जयपुर), वि वम्भरा (बीकानेर), भाोध पत्रिका (उदयपुर), जन मंगल (उदयपुर) इत्यादि पत्रिकाओं मं रावत सारस्वत के विद्वतापूर्ण आलेख छपे।
रावत सारस्वत की मौलिक प्रकाि ात कृतियों मंे बखत रै परवाण, मीणा इतिहास, दुरसा आढ़ा, प्रिथीराज राठौड़, आइडेण्टिटी ऑफ रावल्स हैं। मौलिक अप्रकाि ात रचनाओं मंे अणगाया गीत, राजस्थानी भाशा का संक्षिप्त इतिहास, आज का राजस्थानी साहित्य, संक्षिप्त राजस्थानी भाब्दको ा, राजस्थान का सांस्कृतिक को ा हैं।
रावत सारस्वत द्वारा अनुवादित प्रकाि ात रचनाओं में वि वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के 'बसंरी` नाटक का राजस्थानी में अनुवाद, चंद्रसिंह के राजस्थानी काव्य 'बादळी` का हिन्दी अनुवाद तथा गुरु गोविन्दसिंह के औरंगजेब को लिखे गए पत्रमय फारसी काव्य का राजस्थानी मंे अनुवाद आते हैं। रावत सारस्वत द्वारा किए गए अप्रकाि ात अनुवादों में ऋग्वेद की संस्कृत ऋचाओं का राजस्थानी में अनुवाद, विल्हण रचित चोर पंचाि ाका का राजस्थानी में अनुवाद, हाल रचित प्राकृत रचना गाथा (गाहा) सतसई का राजस्थानी में अनुवाद हैं।
रावत सारस्वत द्वारा संपादित ग्रंथों की लम्बी सूची है। इसमें प्राचीन साहित्य के गद्यमद्य से लेकर आधुनिक राजस्थानी के गद्य पद्य तक की संपादित रचनाएं आती हैं। चंदायन, राजस्थान के कवि भाग-२, आज रा कवि, आज रा कहाणीकार, दळपत विलास, महादेव पार्वती री वेलि, राजस्थान रा लोक गीत, राजस्थान साहित्यकार परिचय को ा (दो भाग), प्रबंध पारिजात, आज री कविता, आज री कहाणियां, जनकवि उस्ताद, डिंगल गीत इत्यादि आते हैं।
रावत सारस्वत की अंग्रेजी में प्रकाि ात पुस्तकें थ्तममकंउ डवअमउमदज वि त्ंरंेजींदप स्पजतमजनतमए ब्नसजनतंस क्पबजपवदंतल वि त्ंरंेजींदए ैवबपव म्बवदवउपब स्पमि प्द डमकपअंस त्ंरंेजींद ।े क्मचपबजमक प्द त्ंरंेजींद च्तवेम ब्नतवदपबंसेए ज्ञंदींक क्म च्तंइंदकी . । ब्नसजनतंस ैजनकलए प्कमदजपजल वि त्ंूंसे पद त्ंरंेजींद प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा स्फुट आलेख कविताएं भी हैं।
राजस्थानी के संदर्भ में रावत सारस्वत की अपनी सोच थी। प्राचीन राजस्थानी साहित्य के रखरखाव, संपादन, प्रका ान के लिए बहुत चिंता प्रकट करते रहते थे। इसे अपनी प्राथमिकता के क्रम में रखते थे। इसमें लोक साहित्य व संत साहित्य भी आता है। राजस्थानी के इतिहास लेखन में रावत सारस्वत की मान्यता थी कि यह एक व्यक्ति के व ा का काम नहीं है। यह विद्वानों की टोली द्वारा मिलकर करने से ही संभव होगा। राजस्थानी के मौलिक साहित्य के प्रति भी उनकी चिंता स्पश्ट थी। डिंगल छन्दों के पाठ, संतों की वाणियों एवं लोकगीतों, लोकगाथाओं के ओडियो-विजुअल (श्रव-दृ य) सैट आज की टैक्नोलोजी के सहारे किए जाने चाहिए। साहित्यकारों में सहिश्णुताकी कमी से भी वे चिंतित थे। रचनकारों के अध्ययन की दृश्टि से पिछड़ने से भी वे चिंतित थे। राजस्थानी में आलोचना विधा के पिछडत्रने से भी वे चिंतित थे।
राजस्थानी के लिए ही जीने एवं कार्य करने वाले रावत सारस्वत का सर्वांग मूल्यांकन करने हेतु उनकी मौलिक, संपादित, अनुवादित रचनाओं की झलक मात्र आगे परिि ाश्ट में दी गई है। यह संपूर्ण पुस्तक ही उनके व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व का दस्तावेज है। यह इस आ ाा से तैयार किया गया है कि इससे प्रेरणा लेकर राजस्थानी जन समाज उनके भाुरू किए गए कार्यों को अंतिम परिणति तक पहुंचाए।
No comments:
Post a Comment