परम्परा एवं व्यक्तित्व

(यहां साहित्‍यकार श्री भंवरसिंह सामौर सृजित पुस्‍तक 'हमारे साहित्‍य के निर्माता : रावत सारस्‍वत' का सार-भाग क्रम से दिया जा रहा है। इससे रावत सारस्‍वत के व्‍यक्तित्‍व-कर्तृत्‍व को भली-भांति समझा जा सकेगा। पुस्‍तक एकता प्रकाशन, चूरू से प्रकाशित है।)

परम्परा एवं व्यक्तित्व

रावत सारस्वत के व्यक्तित्व को समझने के लिए उनकी कुल परम्परा एवं साहित्य परम्परा को समझने की आवश्‍यकता है। रावत सारस्वत ब्राह्मण कुल परम्परा के उज्ज्वल नक्षत्र थे। उन्हे विरासत में मिली थी राजस्थानी साहित्य की सुदीर्घ परम्परा। इन दोनों ही परम्पराओं को पुष्‍ट करने का कार्य किया राजस्थान की संस्कृति ने। यह राजस्थान की संस्कृति भारतीय संस्कृति का वह प्रकाश स्तंभ है जिसके प्रकाश से अतीत की संस्कृति आलोकित है तथा आनेवाली संस्कृति लोक स्मृति के रूप में उसी प्रकाश से आभावान है।
ईरान से इण्डोनेनिया तक की प्रवहमान संस्कृति का हृदय स्थल भारत है तथा भारत का हृदय स्थल राजस्थान है। राजस्थान के पुष्‍कर से ही ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचना की लोक एवं शास्त्र मान्यता है। साथा ही वैदिक ऋचाएं भी उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान में सरस्वती नदी के किनारों पर रचे जाने की लोक मान्यता है। लोक भाषा राजस्थानी की शब्दावली में वैदिक संस्कृत के मूल शब्दों की भरमार इस बात की पुष्टि भी करती है। हमारी संस्कृति अनेक उपासना पद्धतियों, तीर्थ स्थलों को समाज कुल के रूप में मान्यता देती आई है। शिक्षण केन्द्रों को गुरुकुल के रूप में प्रतिष्‍ठा मिली है। संयुक्त परिवार, कुल मर्यादा, वंशानुगत कार्य व गौरव को पितृकुल के रूप में स्वीकार्यता प्राप्त है।
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के भीतर भी जाति व्यवस्था है। भारतीय समाज के अपकर्ष काल की मानसिकता ने जिस प्रकार समाज को खंड-खंड कर दिया, बांट दिया उसी मानसिकता ने जातियों को भी अन्तर्विभाजित कर खंड-खंड कर दिया। ये जातीय विभाजन मूल रूप में स्थान केन्द्रित है। ब्राह्मण वर्ग भी इससे अछूता नहीं रहा। ब्राह्मणों में सारस्वत, गौड़, कान्यकुब्ज (कन्नोजिया-सरयू पारीण), शाकद्वीपीय (सेवक-भोजक), खंडेलवाल, दाहिमा (दाधीच), पारीक, पारासर, नागर, पालीवाल, श्रीमाली, सनाढ्य, बागड़ा, मालवी, श्रीहर्ष, हरियाणा, भटनागर, माथुर, सूर्यध्वज, श्री श्रीमाल, बाल्मीकि, सौरभ, दालम्य, सुखसेन, सिखवाल, वैष्‍णव (स्वामी), एवं आचार्य (महाब्राह्मण) इत्यादि स्थान केन्द्रित ब्राह्मण समुदाय की जातियां हैं। इनमें परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार आज भी नहीं होता। इस सूची के अतिरिक्त भी ब्राह्मण समुदाय की अनेक जातियां हो सकती हैं जो इस सूची में आने से छूट गई हैं। उदाहरणार्थ गौड़ों में भी आदि गौड़ आदि अनेक समुदाय हैं। इस पर और शोध की आवश्‍यकता है। ब्राह्मण समाज के बुद्धिजीवी वर्ग मे आता है।
रावत सारस्वत इसी ब्राह्मण समुदाय के सारस्वत ब्राह्मण थे। सारस्वतों का सम्बन्ध सरस्वती नदी से है इसलिए सरस्वती शब्द पर विचार की आवश्‍यकता है। व्याकरण के अनुसार सरस शब्द में मतुप् प्रत्यय लगकर सरस्वत् शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है- सजल, रसीला, ललित, भावुक। सरस्वत् शब्द में ङीप प्रत्यय से सरस्वती शब्द बनता है। सरस्वती शब्द ब्रह्मा की पत्नी, वाणी, ज्ञान की अधिष्‍ठात्री देवी, बोली, स्वर, वचन, भाषा, नदी, गाय व श्रेष्‍ठ स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है। सरस्वती नदी का प्रवाह स्थल हिमालय से कच्छ की खाड़ी तक है। इसे सारस्वत क्षेत्र कहा जाता है। इस दृष्टि से सारस्वत का सामान्य अर्थ हुआ सरस्वती नदी के क्षेत्र में निवास करने वाला। इसका एक अन्य अर्थ सरस्वती का पुत्र भी होता है। प्रारंभ में तो सरस्वती के क्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों के लिए सारस्वत शब्द व्यवहृत होता था। कालान्तर में सारस्वत शब्द ब्राह्मणों के सारस्वत समुदाय के लिए रूढ़ हो गया। आज भी यह शब्द इसी रूप में प्रयुक्त होता है।
चूरू में सारस्वत ब्राह्मणों की काफी आबादी है। सारस्वतों के दो भेद हैं। प्रथम कूंडिये वाले व दूसरे कूंडिये से बाहर वाले। कूंडिया राजस्थानी भाषा का भाब्द है जिसका अर्थ होता है- गोल घेरा बनाने वाली रेखा। इनकी अनेक नखें हैं यथा तावणियां, मोट, कुर्विलाव, ओझा छोटा, ओझा बड़ा, कालाणी, नागोरी, कांथड़िया, लीलकिया, सारस्वा, गुरावा, जांगळवा, त्रिगुणायत, कूकड़, गुसांई, टिमटिमियां, मटानियां एवं कोडका आदि। इनमें कई नखों के सारस्वत चूरू में आबाद हैं। सारस्वतों के लगभग 300 परिवार चूरू में बसते हैं जिनमें से 25-30 परिवार कूंडिये वाले तथा अन्य कूंडिये से बाहर वाले हैं। कूंडिया सारस्वतों की माहेश्‍वरी महाजनों की जजमानी भी है।
सारस्वत ब्राह्मणों ने चूरू को अनेक व्यक्तित्व दिए हैं जिनमें से कुछका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है-
चूरू में मास्टरजी के रूप में विख्यात श्रीराम शर्मा चूरू के आधुनिक युग के प्रज्ञा पुरुष थे। आप श्री लाखूराम के सुपुत्र थे। श्रीराम शर्मा राजस्थानी, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी के विख्यात विद्वान थे। एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के लेखक थे। इनकी बहुचर्चित पुस्तक 'गीता सप्तशती` आधुनिक भारत के युवाओं के उद्बोधनार्थ लिखी गई थी। इस पुस्तक का प्रकाशन बिड़ला हाउस, कोलकाता से हुआ था। श्रीराम शर्मा जुगलकिशोर, रामेश्‍वरदास, घनश्‍यामदास एवं माधवप्रसाद बिड़ला के गुरु थे। घनश्‍यामदास बिड़ला ने अपनी डायरी में इनके बारे में प्रसंगवश विस्तार से प्रकाश डाला है जिसके कुछ अंक प्रसंगवश 'मरुभूमि का मेघ` नामक पुस्तक में छपे हैं। 'पत्रों के प्रकाश में स्वामी गोपालदास` पुस्तक में भी इनके कुछ पत्र प्रसंगवश छपे हैं जिनमें स्वामीजी को 'प्रिय मित्र गोपालदास` संबोधन दिया गया है। सर्व हितकारिणी सभा, चूरू के आप संस्थापक मंत्री थे। महमना मदनमोहन मालवीय श्रीराम शर्मा को चलता-फिरता कोश कहते थे। महमना मदनमोहन मालवीय श्रीराम शर्मा को राजस्थान, गुजरात एवं मध्यप्रदेश प्रवास में बनारस हिन्दू विश्‍वविद्यालय के लिए धन संग्रह हेतु साथ रखते थे। श्रीराम शर्मा की प्रेरणा से ही सर्वहितकारिणी सभा का भवन, धर्मस्तूप, सफेद घण्टाघर, इन्द्रमणि पार्क आदि बने। इन कार्यों में सहयोगी की भूमिका निभाई स्वामी गोपालदास ने। स्वामी गोपालदास के साथ तो आपकी अंतरंगता इतनी थी कि उनके अंतिम समय में भी आप ही हरिद्वार में उनके साथ थे। स्वामीजी की इच्छानुसार गंगा तट पर उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था आपने ही करवाई। आपका स्थाई निवास बिड़ला हाउस, कोलकाता ही रहा। कबीर पाठशाला, पुत्री पाठशाला के सूत्रधारों में भी आपकी ही गिनती होती है। वैद्य शांत शर्मा की पत्नी श्रीमती कृष्‍णादेवी शर्मा ने ही पुत्री पाठशाला में महिला शिक्षा की शुरूआत की तथा इसका उस जमाने में भारी विरोध हुआ। श्रीराम शर्मा रावत सारस्वत के ननिहाल पक्ष से थे। वैद्य शांत शर्मा भी सारस्वत समुदाय से ही थे जो स्वतंत्रता आंदोलन में जेल भी गए तथा आयुर्वेद के नामी वैद्य थे। इनका कोलकाता में औषद्यालय था। ये भी बिड़ला परिवार के चिकित्सक रहे।
चिरंजीलाल औझा भी चूरू के सारस्वत समाज से ही थे। ये अच्छे कवि थे। आप आयुर्वेद के भी अच्छे ज्ञाता थे। भरतिया महाजनों के आप मुनीम थे। भरतिया अस्पताल आप ही की प्रेरणा एवं देखरेख में बना है। आपकी स्मृति में शिक्षा भारती द्वारा संचालित चिरंजीलाल ओझा शिशु मंदिर संचालित है जिसका भव्य भवन भी है। आप लम्बे समय तक चूरू रेडक्रास सोसाइटी के अध्यक्ष रहे तथा चिकित्सा क्षेत्र में खूब सेवा कार्य किया। क्योंकि तब रावत सारस्वत रेडक्रास सोसाइटी राजस्थान के सचिव थे। सारस्वतों में रमाकान्त औझा नगरपरिषद, चूरू के सभापति एवं ओम सारस्वत चूरू भाजपा के जिलाध्यक्ष रहे हैं।
रावत सारस्वत कुर्विलाव नख के सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके पूर्वज कश्‍मीर से निष्‍क्रमण कर पहले पंजाब व हरियाणा में बसे तथा बाद में राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के बिसाऊ एवं रामगढ़ तथा थली़ अंचल के चूरू में बसे। इन्ही में से रावत सारस्वत के पूर्वज बिसाऊ में बसे। इसी बिसाऊ परिवार के केदारनाथ सारस्वत चूरू के अपने निकटतम बैजनाथ सारस्वत के गोद आए। केदारनाथ के पुत्र महादेव प्रसाद हुए। महादेव प्रसाद बीकानेर रियासत में थानेदार रहे। महादेव प्रसाद के पांच पुत्र हुए।
रावत सारस्वत का परिवार विद्या व्यसनी परिवार रहा है। बंशीधरजी ज्योतिष विद्या के मर्मज्ञ थे। मुरलीधर सारस्वत की राष्‍ट्र निर्माण में शिक्षा, हमारे काव्य निर्माता, स्वर्ग के खंडहरों में, गणगौर, सजनगोठ, मारवाड़ी बन्धुओं का इतिहास (पटना दर्शन, रांची दर्शन), चूरू की गौरव गाथाएं, अमरों की बस्ती में, आदर्श छन्द रचना आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं। पुरुषोत्तम सारस्वत की सरस्वती के अंचल से, सिद्धिदाता गणेश एवं मंगलमूर्ति श्रीगणेश नामक पुस्तकें प्रकाशित हैं।
रावत सारस्वत का जन्म 22 जनवरी, 1921 ई. को चूरू में सारस्वत ब्राह्मणों के कुर्विलाव नख में पिताश्री हनुमानप्रसाद सारस्वत के घर माता श्रीमती बनारसी देवी (श्री स्नेहीराम औझा की पुत्री) की कुक्षि से हुआ। अपने आठ भाई-बहिनों (चार भाई, चार बहिनों) में रावत सारस्वत सबसे बड़े थे। वर्तमान में इस पीढ़ी में कोई भी भाई या बहिन जीवित नहीं है।
रावत सारस्वत की प्रारंभिक शिक्षा चूरू में ही हुई। पढ़ाई में होशियार होने के कारण पितामह महादेव प्रसाद के वे विशेष प्रिय थे। परिवार में ताऊ बालचंद एम.ए.बी.टी. थे। चाचा मुरलीधर एम.ए. साहित्य रत्न थे। रावत सारस्वत ने आठवीं तक बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त करके छात्रवृत्ति प्राप्त करने का जो सिलसिला शुरू किया उसे बी.ए. तक कायम रखा। आपने सन् 1939 में बीकानेर बोर्ड से हाईस्कूल पास की तथा बीकानेर स्टेट में प्रथम स्थान प्राप्त किया। सन् 1941 में आगरा वि वविद्यालय से प्रथम श्रेणी से बी.ए. किया। सन् 1947 में नागपुर विश्‍वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। सन् 1949 में राजस्थान वि वविद्यालय से प्रथम श्रेणी से एलएल. बी. किया।
बी.ए. करने के उपरान्त रावत सारस्वत का विवाह सिंघाना (खेतड़ी) के सागरमल वैद्य की पुत्री कलावती देवी के साथ सन् 1942 में हुआ। सन् 1944 में प्रथम पुत्र सुधीर का जन्म हुआ। सन् 1947 में पुत्री मंजुश्री का जन्म हुआ। सन् 1949 में पुत्री नीलिमा जन्मीं। सन् 1951में पुत्री मधु ने जन्म लिया। सन् 1953 में पुत्र शेखर ने जन्म लिया। इस प्रकार परिवार में दो पुत्र व तीन पुत्रियां हैं। बड़ा पुत्र सुधीर सारस्वत सिविल इंजीनियर (सन् 2000 में सेवानिवृत्त) तथा छोटा पुत्र शेखर सारस्वत (एम.एससी. भूगर्भ विज्ञान, बनारस विश्‍वविद्यालय) वर्तमान में सेवानिवृत्त है। तीनों बहिनें विवाहित जीवन व्यतीत कर रही हैं।
रावत सारस्वत ने सन् 1941 से 1944 तक अनूप संस्कृत लाईब्रेरी, बीकानेर में पुराने संस्कृत, राजस्थानी (डिंगल-पिंगल) एवं प्राकृत ग्रंथों का कैटैलॉग बनाने हेतु सहायक लाइब्रेरियन के रूप में कार्य किया। सन् 1945 से 1952 तक पत्रकार एवं प्रेस संचालक के रूप में जयपुर में साधना प्रेस तथा राजपूत प्रेस में कार्य किया। सन् 1952 से 1982 तक इंडियन रेडक्रास सोसाइटी राजस्थान के संगठन सचिव के रूप में काम किया। सन् 1955 से 1988 तक विभिन्न संस्थाओं के सचिव, मैनेजर तथा सभापति के रूप में कार्य किया। सन् 1953 में राजस्थान भाषा प्रचार सभा के संस्थापक सचिव के रूप में कार्य किया। इस संस्था के द्वारा आपने 'मरुवाणी` मासिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन किया। सभा द्वारा आपके निर्देशन में राजस्थानी पारखी, विशारद एवं प्रथमा परीक्षा का संचालन किया गया। राजस्थान स्टेट कॉपरेटिव प्रिंटर्स लिमिटेड, जयपुर के जनरल मैनेजर एवं सचिव रहे। राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी, उदयपुर के सभापति रहे। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की गवर्निंग बॉडी के सदस्य रहे। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के परामर्श मण्डल के सदस्य रहे। जोधपुर विश्‍वविद्यालय, जोधपुर के राजस्थानी पाठ्यक्रम समिति के सदस्य रहे। वरदा, मरुश्री, बागड़ संदेश, विश्‍वम्भरा के सलाहकार एवं संपादक मण्डल के सदस्य रहे।
रावत सारस्वत द्वारा राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में किए गए कार्य की महत्ता को समझते हुए उनके उल्लेखनीय योगदान को सम्मानित करने के लिए अनेक संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत किया गया :-
1. राजस्थानी भाषा, साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए 'विशिष्‍ट साहित्यकार पुरस्कार` राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा सन् 1977 में दिया गया।
2. राजस्थानी भाषा के योगदान के लिए सन् 1988 में दीपचंद साहित्य पुरस्कार दिया गया।
3. राजस्थानी रत्नाकर पुरस्कार सन् 1989 में उपराष्‍ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा दिल्ली में दिया गया।
4. मरणोपरान्त सन् 1990 में राजस्थानी भाषा, साहित्य संगम अकादमी, बीकानेर द्वारा 'बखत रै परवांण` काव्य पुस्तक पर पुरस्कार दिया गया।
सरस्वती की सारस्वत परम्परा के अनन्य सेवक रावत सारस्वत सचमुच सरस्वती के पुत्र थे। उन्होंने राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में कालजयी कार्य कर समस्त राजस्थानियों का हृदय जीत लिया। राजस्थानियों ने भी खुल हृदय से राजस्थानी भाषा आंदोलन का नेतृत्व उन्हें सौंप उनमें विश्‍वास व्यक्त किया। उन्होंने भी राजस्थानियों के विश्‍वास को बनाए रखा। समस्त देश में राजस्थानी प्रेमियों एवं साहित्यकारों की एक टीम खड़ी कर दी। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में उन्होंने अनेक मोर्चों पर एक साथ काम किया। राजस्थानी आंदोलन के इस कर्मठ योद्धा का देहान्त 16 दिसम्बर, 1989 ई. में हुआ। राजस्थानी भाषा आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया।


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