रावत सारस्वत का युग



रावत सारस्वत का समय पराधीनता एवं स्वाधीनता का संधिकाल था। व्यक्ति स्वातंत्र्य एवं विचार स्वातंत्र्य की ओर बढ़ते कदमों का समय था। विश्‍व, राष्‍ट्र, समाज एवं व्यक्ति की गरिमा स्थापन का समय था। सन् 1941 से 1944 तक उन्होंने अनूप संस्कृत लाईब्रेरी, बीकानेर में पुराने संस्कृत, राजस्थानी (डिंगल-पिंगल) एवं प्राकृत भाषा के ग्रंथों का अमोलक खजाना अपनी आंखों से देखा तथा उसके कैटैलॉग बनाने के काम में जुटे तो उन्हें सहज ही यह बोध हो गया कि उन्हें क्या करना है? उन्हें आगे की दिशा मिल गई थी।
इस कार्य की परम्परा कहां से प्रारंभ होती है यह भी उन्होंने जाना। सन् 1944 में ही अखिल भारतीय राजस्थानी साहित्य सम्मेलन राजस्थान से दूर दिसावर में बंगाल के दिनाजपुर में हुआ। इस सम्मेलन के आयोजकों में राजस्थानी आंदोलन के भीष्‍म पितामह राय बहादुर सेठ रामदेव चौखानी (मंडावा) थे। उन्होंने बंगाल की धरती पर ऐसा ऐतिहासिक कार्य आजादी के पहले ही कर दिखाया। इस सम्मेलन की यह विशेषता थी कि भाषा के राजस्थानी नाम को सर्वदेशीय स्वीकृति मिली। राजस्थान व उसके सीमावर्ती इलाकों के लोग राजस्थान से बाहर 'मारवाड़ी` नाम से जाने जाते हैं। उनका मारवाड़ी सम्मेलन के नाम से राष्‍ट्रीय स्तर का संगठन भी बना हुआ था। मारवाड़ी मुखिया लोग भाषा का नाम भी मारवाड़ी चाहते थे। यह बात रामदेव चौखानी के माध्यम से भाषाविदों तक आई। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने दूरदर्शिता को ध्यान में रखकर मारवाड़ी की जगह राजस्थानी नाम सुझाया तथा जार्ज ग्रियर्सन, टैसीटोरी एवं मनीषी समर्थदान के 'राजस्थान समाचार` का हवाला देकर रामदेव चौखानी को समझाया कि राजस्थानी भाषा का बहुत बड़ा परिवार है जो पूरे देश में फैला हुआ है। उसे छोटा मत बनाओ। रामदेव चौखानी के बात समझ में आ गई। वे राजस्थानी आंदोलन के पुरोधा बन गए।
वैसे तो पूरे देश से राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति प्रेमी लोग इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। सभी राजस्थानी रियासतों से भी डेलीगेट सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन में बीकानेर रियासत के राजस्थानी प्रेमियों की विशेष भूमिका रही। बीकानेर रियासत के शिक्षा निदेशक रामसिंह तंवर ने उक्त सम्मेलन की अध्यक्षता की। उनका अध्यक्षीय भाषण पुस्तकाकार में छापा गया। वह राजस्थानी आंदोलन को ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है। इस सम्मेलन में राजस्थानी की पाठ्यपुस्तकें तैयार करने का निर्णय लिया गया तथा 50 हजार रुपये स्वीकृत किए गए। यह कार्य सुमनेश जोशी को सौंपा गया।
इन कार्यों की पूर्व पीठिका के रूप में हम थोड़ा पीछे का सिंहावलोकन करें तो सर्वप्रथम वारेन हैस्टिंग ने कोलकाता हाईकोर्ट के जज विलियम जोन्स की देखरेख में सन् 1784 में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना कोलकाता में की। सन् 1788८ में 'एशियाटिक रिसर्च` के नाम से एक रिसर्च जर्नल शुरू किया गया। सन् 1814 में इस संस्था ने अपना म्यूजियम स्थापित किया। कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान के इतिहास पर काम करना शुरू किया। सन् 1844 में कोलकाता में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी स्थापित हुई। इस संस्था ने राजस्थान के कार्य को महत्ता दी। कर्नल जेम्स टॉड उदयपुर महाराणा के सलाहकार बनकर उदयपुर आए। इसी दौरान ऊंटों द्वारा यात्रा कर राजस्थान का इतिहास तैयार किया। जिससे सारे विश्‍व में राजस्थान व राजस्थानी साहित्य की धूम मच गई।
सन् 1909 में एशियाटिक सोसाइटी के निदेशक टॉमस हालेण्ड बने। उन्होंने राजस्थान के प्राचीन ग्रंथ भण्डारों से चारण साहित्य के ग्रंथों की खोज करने के लिए डॉ. हरप्रसाद शास्त्री को नियुक्त किया। डॉ. हरप्रसाद शास्त्री ने राजस्थान की यात्राएं कर अपनी रिर्पोट में चारण साहित्य की अच्छी जानकारी प्रस्तुत की। डॉ. हरप्रसाद की इस रिपोर्ट के छपने से आगे कार्य करने की विद्वानों को प्रेरणा मिली। इटली के नामी विद्वान टैसीटरी ने डॉ. हरप्रसाद शास्त्री से चारण साहित्य पर कार्य करने की इच्छा प्रकट की। जार्ज ग्रियर्सन की सलाह से टैसीटरी को एशियाटिक सोसाइटी का सुपरिटेंडेंट बनाया गया।
सन् 1914 में टैसीटरी जोधपुर आए। जोधपुर रियासत का पूरा सहयोग नहीं मिलने के कारण टैसीटरी बीकानेर आए। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने टैसीटरी को खोज एवं उत्खनन के कार्य में नियुक्त किया। उन्होंने राजस्थानी साहित्य एवं शिलालेखों की बीकानेर रियासत की अमूल्य सामग्री का संकलन किया। एशियाटिक सोसाइटी ने टैसीटरी द्वारा संपादित हस्तलिखित पांडुलिपियों का विवरण तीन खंडों में छापा। टैसीटरी ने 'छन्द राव जैतसी रो सूजा बीठू रो कह्यो`, 'वचनिका राठौड़ रतनसिंह री जग्गा खिड़िया री कही` का विद्वतापूर्ण संपादन किया। इन पुस्तकों की भूमिकाएं टैसीटरी की विद्वता की साक्षी देती हैं। शोध एवं आलोचना की नई परम्परा के सूत्रपात का श्रेय टैसीटरी को जाता है। सन् 1918 में टैसीटरी का देहांत हो गया।
सन् 1893 में श्‍यामसुंदरदास एवं रामनारायण मिश्र ने प्राचीन पुस्तकों के संपादन-प्रकाशन हेतु नागरी प्रचारिणी सभा काशी में स्थापित की। हणूतिया (जयपुर) के बारहठ बालाबख्स पाल्हावत ने 9 हजार रुपये की राशि सभा को दान कर उससे बारहठ बालाबक्स चारण पुस्तकमाला की शुरूआत की। इस राशि से राजस्थानी की 9 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। शेष बची राशि से सभा में बारहठ बालाबख्स के नाम से एक कमरा बना दिया गया।
पूना की भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट को भी मुंबई के शिक्षा विभाग ने राजस्थान में पुस्तकों की खोज का काम सौंपा। श्रीधर एवं देवदत्त भण्डारकर ने दो बार राजस्थान की यात्रा की। उन्होंने अपने यात्रा विवरण में जिन पुस्तकों एवं पुस्तक भण्डारों की सूची दी वह ऐतिहासिक दृष्टि से उल्लेखनीय थी। इस सूची में जैसलमेर का भारत वर्ष का सबसे प्राचीन ग्रंथ भण्डार का विवरण भी विश्‍व के सामने आया।
कविराजा श्‍यामलदास 'वीर विनोद` नामक इतिहास ग्रंथ तैयार कर रहे थे। गोरीशंकर हीराचंद औझा को श्‍यामलदास ने बुलाया तथा अपना सहायक मंत्री नियुक्त किया। औझाजी साहित्य एवं इतिहास दोनों के विद्वान थे। 'प्राचीन लिपिमाला` उनकी नामी रचना है। उन्होंने राजपूताने का इतिहास अनेक खंडों में लिखा। कृष्‍णसिंह बारहठ ने वंश भास्कर का टीका सहित संपादन कर उसे आठ खंडों में प्रकाशित करवाया। इन्होंने डिंगल को समझने के लिए 'कृष्‍ण डिंगल नाम मासा` नाम से कोश तैयार किया।
मुंशी देवीप्रसाद को भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने 'राजस्थानी पुस्तकों की खोज` नामक पुस्तक तैयार की। रामनारायण दूगड़ ने भी 'मुंहता नैणसी री ख्यात` एवं 'बांकीदास रचनावली` का संपादन किया जो नागरी प्रचारिणी सभा से छपी।
भूरसिंह मलसीसर ने 'महाराणा यश प्रकाश` एवं 'विविध संग्रह` नाम से दो पुस्तकें संपादित कर प्रकाशित की। पंडित रामकर्ण आसोपा ने राजस्थानी की व्याकरण व इतिहास पर काम किया। जयपुर के हरिनारायण पुरोहित ने 'मीरां पदावली` एवं 'सुंदरदास ग्रंथावली` का विद्वतापूर्ण संपादन किया। बीकानेर के सूर्यकरण पारीक ने भी 'वेलि क्रिसन रुकमणी री`, 'ढोला मारू रा दूहा` एवं 'राजस्थानी बातां` तथा राजस्थानी लोकगीतों के दो भाग संपादित किए। सूर्यकरण पारीक से बहुत आशाएं थी, वे 35-36 वर्ष की अवस्था में ही महाप्रयाण कर गए। रामसिंह तंवर एवं नरोत्तमदास स्वामी इसी परम्परा के अन्वेषी थे। ये सब लोग एक व्यक्ति न होकर संस्था सदृश थे।
दिनाजपुर में आयोजित अखिल भारतीय राजस्थानी सम्मेलन का ही यह प्रभाव था कि कोलकाता में राजस्थानी भाषा के लिए अच्छी टीम बन गई। तुलसीराम सरावगी, ईश्‍वरदास जालान, सागरमल बैंगाणी, भंवरलाल बैद, शुभकरण सुराणा, कुंदनमल सेठिया ने इस सम्मेलन को सफल बनाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका रामदेव चौखानी एवं नागोरी के नेतृत्व में निभाई। इसी का सुपरिणाम था कि रघुनाथ प्रसाद सिंघानियां ने राजस्थानी रिसर्च सोसाइटी के माध्यम से राजस्थानी आंदोलन को गति प्रदान की। डॉ. मोतीलाल मेनारिया, जनार्दनराय नागर, डॉ. गोरी शंकर हीराचंद औझा, मुनि जिनविजय, कविरत्न हिंगलाजदान कविया, पुरोहित हरिनारायण, हीरालाल शास्त्री व जयनारायण व्यास इस सम्मेलन में चर्चित रहे। महामना मदनमोहन मालवीय मालवा (मध्यप्रदेश) क्षेत्र के होने के कारण स्वयं को राजस्थानी ही मानते थे। वे चाहते थे कि बनारस हिन्दू विश्‍वविद्यालय में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु राजस्थानी भाषा भवन बने तथा वह काशी नागरी प्रचारिणी सभा भवन (जो विश्‍वविद्यालय में स्थित है) की तरह काम करे। साथ ही मालवीयजी यह भी चाहते थे कि विश्‍वविद्यालय के छात्रों को राजस्थानी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाए। राजस्थानी के बल पर राजस्थान के लोगों का इतना रूतबा था कि पं. रामकरण आसोपा को सर आशुतोष मुखर्जी (वाइस चांसलर) ने बिना विधिवत विश्‍वविद्यालयी डिग्री के कोलकाता विश्‍वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष नियुक्त किया। किशोरसिंह बारहठ को मेम्बर ऑफ एशियाटिक सोसाइटी लंदन का मानद सदस्य बनाकर सम्मान दिया गया।
बंगाल तो राजस्थानी भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं इतिहास पर इतना लट्टू था कि बंगला भाषा में राजस्थान की गौरव गाथाओं पर काव्य, कथा-उपन्यास एवं नाटकों की झड़ी लग गई। ऐसी स्थिति में राजस्थान में भी कुछ होना चाहिए यह सोचकर बीकानेर के के महाराजा सादूलसिंह ने बीकानेर में सादूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की। इस संस्थान के माध्यम से कोलकाता की तरह ही काम प्रारम्भ हुआ। रतनगढ़ के सूरजमल जालान ने भी एशियाटिक सोसाइटी के मुकाबले कोलकाता व रतनगढ़ में क्रमश: जालान पुस्तकालय व हनुमान पुस्तकालय की स्थापना कर उनमें इस क्षेत्र के दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथों का संकलन करवाया। राजस्थान के लोगों ने भी जालान को इतना सम्मान दिया कि वे राजस्थानी लोक साहित्य में लोकाक्ति बन गए। रावत सारस्वत द्वारा संपादित 'दलपत विलास` सादूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट की तरफ से ही प्रकाशित की गई। नानूराम संस्कर्ता का काव्य संकलन 'कळायण`, श्रीलाल नथमल जोशी का उपन्यास 'आभै पटकी`, मुरलीधर व्यास का कथा संकलन 'बरसगांठ` आदि इसी संस्थान ने प्रकाशित किए। शोध एवं नव सर्जन का कार्य एक साथ इस संस्थान ने हाथ में लिया। तीस-बतीस राजस्थानी की प्राचीन पुस्तकें प्रकाशित की गई। संस्थान ने ही टैसीटरी के स्मारक का जीर्णोद्धार कराया। टैसीटरी की स्मृति में बड़ा आयोजन किया। इस आयोजन में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी आए तथा राजस्थानी में भाषण दिया। इटली दूतावास से कांसलर तिबेरी तिबोरिया भी आए। टैसीटरी के जीवन पर 'धोरां रो धोरी` नाम से एक उपन्यास प्रकाशित किया गया।
आजादी के आगमन की प्रभात वेला में राजस्थानी अंगड़ाई ले रही थी। भारती की स्वतंत्रता की घोषणा हो चुकी थी। संविधान सभा का गठन हो चुका था। राजस्थान का नेतृत्व राजाओं एवं सेठ-साहूकारों के हाथों था। ये दोनों ही वर्ग राजस्थानी के हितों की रखवाली में बहुत पोचे निकले। राजाओं को तो जाने दीजिए! उन्हें अपने ही हित का ध्यान नहीं रह गया था। देश हित को ही नहीं समझ रहे थे। सेठों की स्थिति भिन्न थी। बिड़ला, बजाज, डालमिया, बांगड़ आदि श्रेष्ठि घरानों में से एक घराना भी धार लेता तो राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में स्थान मिल जाता। पर आजादी आने के साथ ही राजस्थान गूंगा हो गया, अपनी जुबान के बिना। राजस्थान के प्रबुद्ध लोग महसूस कर रहे थे कि उनके साथ छल करके उनकी जीभ काट ली गई।
यह स्वतंत्रता के प्रारंभ की स्थिति थी। जयपुर राजस्थान की राजधानी बना। देश का विभाजन हुआ। देश में उथल-पुथल मची। भारी निष्‍क्रमण हुआ। विश्‍व के निकृष्‍ट राजनीतिक अखाड़चियों ने देखते-देखते देश की धरती को टुकड़ों में बांट दिया। लाखों लोगों ने स्वतंत्रता का स्वागत अपने प्राणों की आहुति देकर किया। हजारों वर्षों से जो लोग जिस धरती पर रह रहे थे वे अपनी धरती से विस्थापित होकर शरणार्थी बना दिए गए। इस उथल-पुथल में रावत सारस्वत भी बीकानेर छोड़कर जयपुर आ गए। राजस्थानी के संदर्भ में किए गए सभी प्रयास काता-कूता कपास हो गया था।
इन विषम परिस्थितियों में रावत सारस्वत ने नए सिरे से जयपुर में पत्रकार एवं प्रेस संचालक के रूप में कार्य प्रारंभ किया। प्रेस एवं पत्रकारिता के कारण उनका जयपुर के बुद्धिजीवियों, लेखकों से सम्पर्क हुआ। राजस्थानी के साथ जो व्यवहार हुआ उससे सभी दुखी थे। सभी किंकर्त्तव्य विमूढ़ से हो गए थे। शासन के कर्ता-धर्ता ब्यूरो क्रेसी के लोग राजस्थान से बाहर के थे। उन्हें राजस्थानी से कोई लेना-देना नहीं था। हमारे नेता हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, टीकाराम पालीवाल आदि ने स्वतंत्रता आंदोलन राजस्थानी के बल पर लड़ा व पत्र भी राजस्थानी में निकाले। पर स्वतंत्रता के बाद हीनता भाव से ग्रस्त थे। अन्यथा उस समय राज्य स्तर पर राजस्थानी स्थापित की जा सकती थी।
रावत सारस्वत के मन में राजस्थानी को लेकर एक टीस थी। युवक थे। जोखिम उठाने का उत्साह था। उन्होंने कारण खोजा कि स्वतंत्रता से पहले सभी रियासतों का पत्र-व्यवहार राजस्थानी में होता था। भरतपुर भी इस पत्र-व्यवहार में शामिल था। राजस्थान का राज्य अभिलेखागार इसका साक्षी है। फिर यह क्या षड़यंत्र हुआ कि दो करोड़ (उस समय) लोगों की भाषा को हाशिये से भी बाहर कर दिया गया। इसकी गहरी खोज करने पर वे इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे कि हर युग में राजस्थानी के साथ ऐसा ही व्यवहार हुआ है। संस्कृत के मुकाबले राजस्थानी (डिंगल) का अपना छंद शास्त्र है। छंद शास्त्र के लगभग 140 ग्रंथ है। ऐसी समर्थ भाषा का विरोध मुरारि कवि के 'अनर्घ राघव` नाटक में स्पष्‍ट मिलता है। मुरारि कवि राजाओं को चेतावनी के स्वर में लोकभाषा डिंगल एवं इसके कवियों के बहिष्‍कार की बात खुलकर करता है। अंग्रेज आए तो उन्होंने भी राजस्थानी भाषा को चुनौती के रूप में ही लिया। राजस्थान के परम्परागत लीडरों (राजाओं) को अपनी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति से काटने के लिए उन्होंने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देकर अपना पिछलग्गू बनाने का षड़यंत्र रचा। क्योंकि वे राजस्थानी का तेवर लार्ड कर्जन के 1903 के दिल्ली दरबार में केसरीसिंह बारहठ के चेतावनी के चरूंटियों को स्वतंत्रता संग्राम के हथियार के रूप में प्रयोग करते देख चुके थे। 15 अगस्त, 1947 में अपने ही देश में अपने ही लोकतंत्र में लोक नेताओं का दुखद व्यवहार भी देख चुके थे।
रावत सारस्वत ने इन सब बातों पर गंभीरता से विचार कर निर्णय लिया कि संगठित प्रयास के बिना यह कार्य अब आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। लोकतंत्र में सगठन की शक्ति ही सबसे बड़ी एवं निर्णायक होती है। उन्होंने चर्चा आगे बढ़ाई। सर्वप्रथम सहयोगी मिले- चंद्रसिंह बिरकाली। उनकी 'बादळी` एवं 'लू` काव्य की सारे देश में धूम थी। उन्हें 'बादळी` काव्य पर देश का सर्वोच्च काव्य पुरस्कार 'मंगला प्रसाद पारितोषिक` मिल चुका था। अन्य भाषा के लोगों ने भी इस काव्य में अपनी उत्सुकता दिखाई। इसलिए हिन्दी भाषिओं के लिए रावत सारस्वत ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था। मंगला प्रसाद पारितोषिक वह पुरस्कार था जिसे राष्‍ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने बाद में प्राप्त किया।
रावत सारस्वत व चंद्रसिंह बिरकाली दोनों में अभिन्न मित्रता थी। दोनों ने मीरां मार्ग, बनीपार्क में प्लाट लेकर मकान बनवाए। चंद्रसिंह के मित्र कुंभाराम आर्य भी इस संग्राम में जुड़े। कुंभाराम आर्य तो साफ कहते थे कि हमारा तो पाठ्यक्रम ही राजस्थानी का लोक साहित्य है जिसने मेरे जैसे मामूली पढ़े-लिखे को व्यक्तिवान बना दिया। चौधरियों की न्याय कथाएं राजस्थानी के बल पर ही जीवित हैं। उन अनपढ़ चौधरियों द्वारा किए फैसलों की आज भी लोक में बातें चलती है।
तीसरे सहयोगी जुड़े रतनगढ़ के आचार्य रामनिवास हारीत। हारीत जी नामी कवि एवं विद्वान थे। वे भी जयपुर में रहने के लिए राजी हो गए। रानी लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत भी इस यात्रा में चौथी सहयात्री बनीं। कारवां चल पड़ा। साथी जुड़ते गए।
कार्य को संगठित रूप देने के लिए 'राजस्थान भाषा प्रचार सभा` की स्थापना की गई। रावत सारस्वत सभा के संस्थापक सचिव बने। समस्त देश के लोगों को इससे जोड़ने का कार्य किया गया। एक मासिक पत्रिका 'मरुवाणी` नाम से निकालने का निर्णय हुआ। विश्‍वविद्यालय के पैटर्न पर राजस्थानी प्रथमा, विशारद, पारखी एवं शिरोमणि की परीक्षाएं सभा ने आयोजित की। उनका पाठ्यक्रम तैयार किया गया। परीक्षा केन्द्र स्थापित किए गए। समस्त देश में परीक्षा केन्द्र थे। लोग उत्साह से परीक्षा देते थे। सभा का परीक्षा विभाग अलग से था। उसके प्रथम रजिस्ट्रार स्वयं रावत सारस्वत थे। बाद में श्रीलाल नथमल जोशी बने। प्रश्‍न पत्र निर्माण एवं उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का पारिश्रमिक विश्‍वविद्यालय के समान ही दिया जाता था। मेघराज मुकुल भी शासन सचिवालय में जयपुर आ गए थे। उन्हें यह पुरस्कार दिनाजपुर सम्मेलन में पढ़ी गई उनकी 'सैनाणी` कविता की देन थी। दिनाजपुर सम्मेलन से पहले हिन्दी के कवि सम्मेलन होते थे। उस सम्मेलन में मेघराज मुकुल की 'सैनाणी` इतनी जमी कि उसकी पूरे देश में धूम मच गई। मंच पर राजस्थानी को स्थान मिला।
रावत सारस्वत का मूल्यांकन इसी रूप में करना चाहिए कि उन विपरीत परिस्थितियों में भी राजस्थानी को स्थापित करने के लिए उन्होंने धैर्य के साथ एक नई शुरूआत भावुकता के कल्पित आकाश पर नहीं बल्कि कटु यथार्थ के ठोस धरातल पर की।




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